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Showing posts from April, 2024

जिसे तुम, न जानना चाहते हो, न मानना ही,

एक दिन मैंने  ऐसे ही बैठे बैठे अपने कमाऊ  पूत से कहा, कुछ ज्यादा नहीं  तुम मुझे बस टुकड़ा भर जमीं,  थोड़ा आसमां,  थोड़ी धूप, बहुत थोड़ी सी  किसी हरे पेड़ की छांव,  अपनी स्वतंत्रता से अपने पंखों पे  सुदूर देश से आती हवा। एक साफ मीठे पानी  का कुआं, छोटी  बहुत छोटी  पर्णकुटी। दो क्यारियां हरी भरी  पौधों से लदी। दे दो बस। उसने पूछा? कुछ धन दौलत! मैंने कहा नहीं…। बस  और कुछ  नहीं चाहिए, इतना गर दे पाओ  तो, शुक्रगुजार हूंगा जिंदगी सारी। सोचो तो मैने मन  मार कर मांगा है, अभी। मैं नहीं मांगता  तुमसे, मानसरोवर सी  झील, हिम से चमचमाते विराट  शांत पर्वत, नदी के शीतल सिक्त हरियाले  विस्तृत पुलिन, गाढ़ा नीला सुस्वच्छ  घिरता आकाश, चहकती चिड़ियां। और भी नहीं मांगता तुमसे मैं बहती नदी की कल कल  करती लहरें, हरियाले  जीवों से भरे  जंगल पर्वत, फल लगे  बगीचे। कुहुकती फुदकती  चिड़ियां, हरियाले विस्तृत मैदान, जादुई बादलों की छांव स्वस्थ सुंदर, नयनाभिराम आकर्षक लोग,  पुष्पो से...

कौन कहता है, मकां सामां, की चाहत है बची,

कौन कहता है,  मकां सामां,  की चाहत है बची, अब नहीं कोई जगह  रखने को  बाकी है बची। एक उम्र के बाद दुनियावी वस्तुएं लोगो के लिए अपना मैजिक या लस्ट खो देती हैं। उस बदली जिंदगी में मकान और अन्य वैसे सामान की बढ़ती इच्छा समाप्त हो जाती है। जिंदगी में सामान नहीं लोगो की जरूरत आन पड़ती है। जिंदगी की ढाल पर  चाहत की बातें मत करें, जिंदगी की शाम में  बीती कहानी मत कहें। उम्र के एक पड़ाव पर या ढलान पर इच्छा अनिच्छा अपना से ऊपर आवश्यकता महत्व रखती है । बीती बातें बिसारने का मन होता है। देख आया हूँ निराले  कैनवस की शान को, रंग पुती दीवार को  उस जगमगाती शाम को। अपने अपने समय पर हर शख्स जिंदगी की रंगतों से, चकाचौंध से वाकिफ होता ही है। बेशक आज वह जीवन के आखिरी मोड़ पर ही क्यों न खड़ा हो। झिलमिलाते रूप की  बिछलन भरी वे नेमते, फूल के कलियों सरीखी  मुस्कुराती सूरतें। रूप रंग, सौंदर्य सदा से रहा है, यह हर काल में अपने में चरम पर ही रहता है। हर उम्र के लोगों से सबका साबका पड़ता ही है। हाथों में हाथ डालकर  किलकार करती जोड़ियां, भागते ऑटो पकड़ती  च...

मुक्तता की मोतियों का हार पहने, आनंद संग वह नृत्य करता, अन्तस में अपने।

अंतस में झरना!  है कहां?  आनंद झरता  है जहां! आनंद बाहर नहीं हर मनुष्य के अन्तस में भीतर ही होता है, आखिर हमारे भीतर वह जगह जहां इसका झरना है उसे ढूंढते हैं। रिस रिस के रस  वह कौन है ?  जो सरसता है,  निकलता है, खुद ही पिघल कर,  आत्म प्रेरित आंसुओं के  साथ मिलकर बरसता है। अनेक बार आनंद के साथ आन्नदाश्रु भी भाव विह्वलता स्थिति में अंगो से सरसने या रिसने लगता है। सुधी जन भी, भक्त जन भी, सामान्य लोग भी आनंदातिरेक की भाव दशा में प्लवित, द्रवित हो आंसू बहाने लगते हैं। उस रस विशेष आनंदरस को देखते हैं की कहां से निकल कहां समसता है और हम विगलित हो आंसू टपकाने लगते हैं। हां, वही रस  अंतस में भर, जब आंतरिक रस सिक्त होकर, फूट, बहता,  भावना को भेदता संवेदना को पार कर, कर। आनंद रस आत्म वेदना, अपनी निरा संवेदना का रस है जो भाव दशा का अतिक्रमण या लांघ कर भावनाओं को वेध देने से कपड़े सा गारने से चू जाता है। फिर भीतर का घट और पट भर कर और भींग कर जब इसे नहीं संभाल पाते तो यही आंखों से निकलने लगता है। अनुभूति की  उन क्यारियों में, भावना उद्दीप्त होकर, ...

कौन है जो संग देता, रंग देता चेतना को,

कौन सी वह जड़ बताओ पनपती है, जन्मते ही, मृत्यु तक है साथ रहती चिर युवा बन संग तेरे। जीवन में जीव के साथ वह क्या है जो जन्म से मृत्यु पर्यन्त साथ रहती है। जो हमे सदैव गतिमान बनाए रखती है। कौन है जो संग देता, रंग देता चेतना को, देख कर जिसको सृजन-ती  कल्पना उस क्रमिक पथ पर। वह विशिष्ट क्या है जो हमारी चेतना पर हावी होकर उसे अपने साथ अपने रंग या अपने अनुसार सृजन या कार्य करवाता रहता है, अपने अनुसार कल्पना करवाता रहता है। परिवर्तनों का क्रम ही उर है कल्पना संग मन का तेरे। स्वयं अभिप्रेरित व्यवस्थित  चल रहा इस सकल जग में। सृष्टि में, नभ में, जलों में, एक संग चहुंओर तेरे। इस विश्व के गर्भ में जो रहस्य है वह भीतर नहीं बाहर है, क्योंकि सत्य अपने को छिपाता नहीं प्रकाश उसका गुण है। ‘प्रकृति की स्वतः स्फूर्त परिवर्तनशीलता’ वह राज है, जो हर समय, हर जगह, हमें आकर्षित कर अपने साथ अपनी गतिमय लयता में बांध, नचाती रहती है।   गति वहीं से  है पकड़ता,  इंद्रियों का रस है जिसमे, मन जिसे कहते हो तुम,  गति रुपता का लय ही वो है। सारी इंद्रियों का एक मात्र ‘रस रूप’ मन है। यह मन इस व...

परिवर्तनों का क्रम छुपाए, चल रहा, अंतरक्रमों में।

विस्मय भरा यह विश्व… कै…से  सतत है गतिमान… देखो……, परिवर्तनों का क्रम छुपाए, चल रहा, अंतरक्रमों में। या चलाता है कोई इसको छुपा बैठा कहीं पर ! खोजते हैं, आज चलकर। भेद इसका ढूंढते हैं हम सभी,  एक साथ, मिलकर। अनेक आश्चर्यों से भरा यह संसार काल, रूप, अवस्था, रंग, मन, शक्ति, सभी तरह लगातार परिवर्तनों से भाग रहा है। कुछ भी कहीं भी स्थिर नहीं है। हर परिवर्तन में एक नया क्रम नया रूप, आकृति, ज्ञान छुपा रहता है। इसको समझने की थोड़ी कोशिश साथ मिलकर करते हैं। वह कौन है,  जो दीखता  हो.., खींचता..,  नित् नवल..  रच.., रंग.. सतत सुंदर..  स्वप्न सा,  सुंदर सुकोमल  इंद्रधनुषी ये इबारत काल पर। समय की इस विशाल शिला पर सुन्दर और कल्याणमयी विजय गाथाओ को वह कौन है जो रोज ही अकल्पनीय रंगो को रच कर और उनसे रंग कर रिकार्ड बना रहा है। उस कर्ता को खोजते हैं जो कालजयी रचनाकार सा दिखता है। अनवरत अपनी कथाएं लिख रहा जो  इस धरा पर  अभय होकर! संग मिलकर परिश्रमो का रंग भरकर! अनादि काल से, निर्भयता पूर्वक, अपने परिश्रम से, अनवरत वह कौन है जो पृथ्वी पर अमित दिखती काल क...

मृत्यु क्या है, दुंदुभी उस जीत का, जीत जाता है कोई अपराजिता,

मृत्यु क्या है ? विवशता का छोर अंतिम! या लटकती  लता कोई  सांस की, बस टूटती सी। अंत है संघर्ष का संपूर्ण ही यह, या पट लिपटता सृष्टि के परिधान का। क्या? अंतिम  समर्पण मृत्यु है ! अन्याय को! अनैक्षिक, थोपी गई इस व्यवस्था का सदा से! या शक्ति तांडव  नग्न है, यह ध्वंस है  उस-भ्र्न्श का ! मृत्यु होगी  रास्ता  अंधे तिमिर का, अपरवश-ता बीच, जिसमें,  चुक, चुके हों विकल्प सारे  खत्म  होकर! शिथिल होकर, गात से बेहाल, होकर। या मृत्यु होगी आर्तता के  द्वार पर, पुकार  अंतिम! आत्मा की। या दुंदुभी उस  जीत का  जो जीत जाता है कोई अपराजिता। क्षण वही होगा जहां निष्क्रिय समर्पण देह का कर, शीघ्र आओ मृत्यु को अंतिम समय पुचकारता वह विलय होता। खुली पलकों बीच ही अंतिम सजर में। मृत्यु होगी  एक दिया  बुझता हुआ, संघर्ष रत चहुं ओर के बागी पवन से। जूझता निज  स्नेह, बाती की कमी से, लपलपाता, खोजता, घिरते  अंधेरे बीच कोई एक संबल। भाग्य की ही आस लेकर हाय! अपनी  घट रही, सीमित पहुंच तक। छटपटाता, स्वर नहीं  चित्कार करता, अंत से ...

आंखों में तो बसती... है कागज पे नहीं छपती..।

मैं जब भी बनाता... हूं, “वो” तस्वीर नहीं बनती, आंखों में तो बसती... है कागज पे नहीं छपती..।   खिंच जाती... हैं रेखाएं  जब  मैं ही नहीं.... होता, कोई जैसे निकल आए  अनजान सी गलि यों में। जय प्रकाश मिश्र ऊपर की पंक्तियां मित्र लव प्रकाश जी के लिए मुख्य कविता पेन की निब से  निकलती स्याह स्याही, जो किसी के हाथों में है, और  किसी के मुंह से निकलती आवाज जो किसी के  प्रभाव या अहसानो में है, अंतर ही क्या है? दोनों,  भीतर के भाव  ही उगलते हैं। जिसके भी  हाथ या प्रभाव में रहते हैं। आखिर शब्द ही  तो बनकर  निकलते हैं। जबानो से बाहर या  कैनवस के ऊपर। किसी का ईंधन हवा है तो  किसी का स्याही। गुमान दोनों को है। जबान को रसीलापन, तो स्याही को पानी।  यही रस पना  ही तो आधार देता है, प्राण भरता है, शब्दों में स्नेह और स्नेहन  के बिना शब्द कागज पर हों  या शब्द जबानों के आगे नहीं  बढ़ सकते।  समझिए बोलने या लिखने से पहले, महत्ता है “पानी” नहीं तो सब बेमानी। कहां की कलम, कहां की जबान। पर पानी की लाज रखना ही तो ये ...

एक दिन, मन मेरा, जा मिला एक झील से।

एक दिन,  ये मन मेरा सचमुच… अचानक,  जा मिला.. किसी...  झील... से। मानस सरोवर नाम.. था,  जिस पर लिखा...। उसे देखता ही देखता... मैं डूबता…और.. डूबता...  उस झील में चलता... गया, खो.. गया…उस झील में, मैं था कहां… मुझे ना पता..। जाने कहां कब एक होकर, मैं उठा। मैं झील हूं...,  ऐसा लगा। हीरक कणों से,   (यानी तराशे हीरे के नगों सा)   अंग मेरे हो गए हैं, मुझको लगा। दिप रहे हैं        (ज्योतिष्मान चमकन) नेत्र मेरे  अरुण जैसे,        (लाल रतनारे नेत्र) खिल रहा,  आकाश में  जो  ठीक वैसे।      (बाल सूर्य सी सुंदर ज्योतिमय आंखें ) झिलमिलाता  गात मेरा             (गात यानी देह शरीर) सूर्य की पहली किरण से  "जल फलक"  ( पानी का ऊपरी पृष्ठ जहां किरणे परावर्तित होती हैं) बन चमकता है  स्वर्ण सा, मैं देखता हूं। "सौंदर्य श्री"         (सुंदरता की पराकाष्ठा) बन नृत्य मैं, हूं कर रहा,  प्रकृति के इस छोर पर,...

नव तरु पल्लव सम, डोलत मन संग संग,

 वरद वर्षा नव तरु पल्लव सम डोलत मन संग संग, बरसत जब वारि बृंद  भीजत सब अंग अंग। चमकन नभ बिजुरी  चम चम चम लागी जब, डरपट हिय साथ लिए  फिरती हत भागी मैं। वर्षा जल टपटप टप चुअन लागी पातिन पर, उमग उमग उर खोलत पवन चंचल डालिन तर। कसमसाति हिलति डारि  झूमति समीर संग, झोंके हैं उघाड़ देत  डलियन के सुघड़ अंग। रस है बहन लागा भी…ग गया, अंतर-तर  बरखा पटाति नाहीं छमछमाति तरुअन पर। वरषत जल मधु समान, धवल हुईं पतियां सब  मन में उदासी भरी जाऊं केहि रहियाँ अब। नृत्य करत सारे तरु  ले ले मृदंग ढोलि  गूंजति शहनाई सी बरखा अबोलि बोलि। वारि झरत अमृत सम पल्लवन के कोनों से आनंद चूंअन लागा  पवन के झकोरों से। श्याम जू छिपन लागे बादलों के कोनों में राधा बन बूंद बरसीं भक्तन की गलियन में। जय प्रकाश मिश्र

मान रखना चाहिए, उस चेतना का

इक छोर छूटी झूमती है लय में अपने, था नहीं अंकुश कोई  इस पर कभी,  भी, सोचता हूं! है सभी का  वास्ता  सच,  एक सा,  ही इस, डगर से, फिर भी अछूती रह, गई,  क्यों खोजता हूं। टूट जाते  क्यों,  किनारे, पास आकर इस नदी के, बह रही  अवसान के संग  जाने न कितने काल से यह! यह आदि सच  मैं  देखता हूं। सब समा  जाता इसी में काल के संग काल बनकर आदि से अब तक नहीं कोई थाह मिलती। है भंवर कैसा, मैं फंस कर बीच इसके भेद का भी  भेद लेना चाहता हूं। एक डुबकी  पत्थरो की, छातियों में गहरी, लगाकर,  क्या! मेरा हृदय धड़कता  इनके भीतर! गहराइयों में एक होकर, महसूस करना  चाहता हूं। रेत के  उन ढूह की तपती शिराओं  में नहाकर  उष्णता के गर्भ में क्या क्या  छिपा है, रूह को अपनी जलाकर, जानना मैं चाहता हूं। सागरों के गर्भ में मैं डूबकर, उस अतल जल में तैरती, उस प्रकृति शिशु के साथ मिलकर खेलकर  बस  पूछना मैं चाहता हूं! क्यों चला करतीं,  विडोलित  उर सदा करतीं, लहर उत्ताल  क्यों बनतीं सतह पर। चीर क...

आंखों से देखते ही ये बिन बुलाए मेहमान क्यूं चले आते हैं

क्या फर्क है, अंधकार में और उसके रास्तों में,  सोचो तो! संसार ही तो  मंजिल है  इन सबकी। रास्ता…..  मन खुद ही है  बनाता अपनाता….  हमे लेकर जाता। जीवन है तो एक प्रवाह बहता हुआ, पर अशांति बहुत है। रास्ते सुंदर तो हैं, पर छल छद्म बहुत हैं। किनारे शीतल दिखते तो हैं, पर फलों में अंगारे भरे हैं। अंधकार में चमकते ये तारे  जगनुओं से खींच लेंगें तुझे। देखो न! चमकते हैं वे, टिमटिमाते हैं,  पलकों पे लगे  चम चम से, किसी मायावी  नारी के मुखों पे। सोख लेंगे  तुझे एक दिन, अपने में, घेरे में, अंधेरे में। एक बार दिल से  दिमाग से सोचो! अंधेरा…  अंधेरा ही होगा। तुम उजाले हो। भोर हो, लालिमा हो। उत्स हो, सत हो। मन तो नहीं, जो गोंद सा  चिपकते चलो सबसे। मुक्त, आत्मवान, अकलुष  विशुद्ध हो तुम। मन, विचार, संसार, अंधकार उस चारपाई के पाए चार। तुम दिव्यतांश हो। प्रकाश अस्तित्व तुम्हारा। भीतर विशद रूप तुम्हारा देखो तो, अनंत शांति,  विराट लहलहाता करुणा सागर  प्रेम की लहरे  ज्ञान, विज्ञान की फुहारे स्वागत द्वार, पर खड़ी इंतजार में...

ये जिंदगी पानी सी बह जाती है।

ख्वाब ही है  ये दुनियां-ए-जिंदगी ए..क दिन  बिखर.. जाती है, संभालो  कितना भी इसे, देखो ना, पा..नी सी  बह.. जाती है। लगे रहे…  सालों साल हो के… पसीना-ए-पसीना पीछे जिसके, वो  मिलते  ही,  हाथों से  बन रेत  निकल जाती है। सफर-ए-जिंदगी....,  क्या मिला  “सिला” कोई……“बात” नहीं।  रास्ता….  अच्छा कटा ये भी तो कोई कम बात नहीं! जो कुछ भी  होना था, सब.... उत्सव से हुआ..., क्या... कम था? बहुत बड़ी  उम्मीद से रहना तो कोई बात नहीं। रिश्ते नाते,  भाई चारे सब होते तो हैं, पर, उम्र-ए-सेहत बीच में  आ जाए कोई  अख्तियार नहीं। दिल जिंदा है !  तो 'वो'  जिंदा है, जिंदगी  चल तो रही, फिर क्यों वो शर्मिंदा है ? गमगीन.... क्यों है,  "वो".... क्योंकि, अभी  उसका "वो" जिंदा है। घेर दो,  बाडे लगा दो,  जहां तक  सोचते हो तुम, या लगा लो…  सीनों से… छुपा लो बाहों में दिल में भी भर लो  तुम उसे, कुछ भी करो, बिछुरना  होता ही है  सभी को, यहां से फिर भी, किसी न किसी,  दिन...

है कहां वह शून्य जो अंतरित होता हृदय में

है कहाँ वह स्वर्ण, जो अंतर बसा है कनक के। दीखते हैं रंग, आकृति,  लोलता बस  रूप की। है कहाँ  वह स्वर्ण,  जो अंतर बसा है  कनक के। दीखती है लहर उठती,  गरजती यह श्रृंखला, है कहाँ वह नीर  जो उर बिच बसा है,  भंवर के। दीखती है  नीलिमा की  छत्र छाया, आवरण नभ  का ये कैसा  छा रहा है। है कहाँ  वह शून्य जो  अंतरित होता  हृदय में,  आकाश में ब्रह्मांड में। दीखता,  यह जगत  सुंदर, रीझता है,  मन मेरा उस गात पर। वह शब्द भीतर  क्या  छुपाए तैरता है, मानस पटल में   शांत,  इस परिवेश में। जय प्रकाश मिश्र भाव: प्रथम स्टेंजा असली कनक, स्वर्ण के बाहरी रूप में नही होता गहने की बनावट में नहीं, वह उसका अनूठा गुण है, वैसे ही मनुष्य की बाहरी आकृति, रूप, शालीनता, कलाकारी से बनाई या लोगों को दिखाई तो जा सकती है पर मनुष्यता के सद्गुण तो स्वभाव में, आचरण में ही मिलेंगे। द्वितीय स्टेन्जा आकार, सुरम्यता, बोली, पर मत लुभाइए, वास्तव में अंतस ही महत्व की वस्तु होती है। और यह उसमे प्रयुक्त पदार्थ पर निर्भर करता है...

जब नहीं होगा, कोई मेरे साथ तब ये

ये तुम्हारे  प्यार के खत…  एक दिन,  मेरे लिए..  ते..री जुबां..  'मीठी' जुबां..  बन जाएंगे। उम्र की  बढ़ती  तपिश के रास्तों में..,  एक दिन, उस .... रुपहले... पेड़  की छाया...  तले , कुछ देर  ही,  के लिए बैठाएंगे। जब नहीं  होगा कोई  मेंरे साथ,  तब वो  प्यार के  हाथों मु झे  छू जाएंगे, एक बार तो सहलाएंगे। जय प्रकाश 2.  मुख्य गीत जीवन प्रवाह क्या है ? यह काल चक्र क्या है? आपेक्षिक ही सभी हैं ! फिर वो निरपेक्ष क्या है? जब गति से सब जुड़े हैं वह अगति कहां छुपा है जब जग प्रवाह ही है तो  वह प्रवाह-हीन क्या है। आएं पता लगाएं..,  थोड़ी दूर तक तो जाएं, सीमा कहां है इसकी,  उसके करीब जाएं…। कोई शक्ति है यहां सच,  सब कुछ मगन मगन है, स्थिर नहीं है कुछ भी ब्रह्मांड है जहां तक…। जब तनकर खड़े है दोनो  ये आकाश बन… रहा है। जब करीब आते दोनों… आकाश घुल….. रहा है। एक समय था कि सबकुछ चुपचाप ही यहां था, खुद में निमग्न था सब बस मौन ही यहां था। गति, शक्ति, मिलना, जुलना कुछ भी नहीं यहां था, ...

सोच रहा हूं. मैं चुप बैठा, नदी बह गई

कैसी,  सच की मुस्कान  तिरती है यहां… चेहरों पर,  देखो ना! खुशी  झरनों सी  झरती है यहां, मुखड़ों पर, देखो ना! चांदनी  कैसी रल  में बहती है, यहां पल, प्रति पल अधरों पर, देखो ना! मृग छौनों सी उन्मुक्त कुलांचो भरी  चिल्हकन,  यहां देखो ना! कैसी थिरकती, है ये  दूधिया सी हंसी होठों पर, देखो ना! कितनी  हो सकती है निर्मलता, धरा पर कुछ आंखों में जरा, देखो ना! जीवन  कैसे मचलता है जहां में  इनसे मिल देखो ना! उंगलियों में क्या  होता है जादू अपनी एक उंगली  इन हाथों में पकड़ा के देखो ना! कैसा  होगा  विधाता, सौम्य, सुषमा की ये शकलें  तुम देखो ना! भाव निहितार्थ: एक बालिका विद्यालय में कक्षा नर्सरी से कक्षा एक तक के बच्चियों को देखा तो उनकी नैसर्गिक दृष्ट अनुभूति आपको प्रेषित किए बिना नहीं रह पाया।  एक कहानी लेकर अपनी एक कहानी  लेकर अपनी,  घूमा मैं धरती  द..र धरती..., बैठ गया हूं...  आज मैं उलझा, जीवन क्या है ?  नहीं मैं समझा ! भाव: अब काफी उम्र गुजरने पर भी काल नद में स्नान के बाद भी ज...

टूट जाऊंगा बिखर जाऊंगा

पिता ने बेटे  के नाम खत लिखा। पर वो नहीं  लिखा जो चाहता था वो लिखना। मैने वो अब आप के लिए  लिखा। "टूट जाऊंगा  बिखर जाऊंगा तुझसे कुछ  मांगने के पहले  'मैं' मर जाऊंगा।" "मिल गई  'मंजिल' जिसे मैं  चाहता था। हो गया  सपना पूरा,  ऐ,  मन मेरे, जिसे तूं चाहता था।" "समय की  बात है,  अरमान  पूरे हुए। लड़के  जवान हुए  और हम बूढ़े हुए।" "आज फिर  हम दोनो ने  बदल ली है अपनी जगह। मैं और  मेरी चाहत उसके और  उसके फ्रेम से  अब बाहर हुए।" फिर सोचता हूं मैं, भी...कभी ऐसा ही था। अर्थात.... मै खुद ही  पीछे  दौडा उसके, जब जब, देखा,  "जीवन" आगे।  पिछला पग  कहां याद  मुझे था,  मन सपनों  संग भागे। जीवन सांझ  कहां खो जाती, अरुण क्षितिज  जब चमके,   याद पुरानी  अपनों की अब  हिम नदिया  सी उछ..ले। जय प्रकाश मिश्र पर्वती नदियों में ऊंचे नीचे रास्तों के कारण उछाल और वेग बहुत ज्यादा होता है। पर्वत नदी का मार्ग अपनी स्थिति से, कदम कदम पर रोकते ...

सहज, शांत, विमल कांति, प्रभु सों आस।

भारतीय साधु का रूप गुण चैतन्य तत्व,  साधु संपत, नयनरम्य ताप। सौम्य, सरल मृदुल मधुर सौंदर्य आप।  नेत्र तेज कलुष रहित शून्य परिताप।  ऊर्ध्वरेत अम्बु सरिस शीतल अभिलाष। शून्य हृदय पक्ष रहित हरत संताप। निर्मल, निर्दोष तरल सच, सौं साथ। निरलस  प्रफुल्ल तन मुदित हुलास। साधना आराधना अटल विश्वास। सहज शांत विमल कांति प्रभु सों आस। जय प्रकाश मिश्र संक्षिप्त भाव:  संत को संसार की सुविधाएं और आंखो को रम्य लगाने वाली चीजे ताप समान होती हैं। वह मुक्त, चैतन्य, जाग्रत भाव का होता है, यही उसकी संपदा होती है। वह सर्वथा अपनी प्रकृति और स्वभाव से ही प्रसन्न रहता है।वह सौम्य, सरल और आंतरिक सौंदर्य जैसे करुणा, प्रेम, शील, सहिश्नु  धारण करता है। इसी तरह आगे भी समझें। सत्य ही उसका असली साथी, ईश्वर प्रणिधान में विश्वास रखता है।

क्या वही रस चख रहा है जो रसों से दूर है।

सोचता हूं: कौन है,  संसार को  जो भोगता हर एक पल है। सुख,  मान कर है  भरमता,  अमराइयों की छांह में जो। या… विषय कोकिल  बोलती जब  मन में उसके झूमता  सावन के रस में भीग कर जो। या… बोल मीठे बांधते हैं मन को जिसके, बालकों, सुकुमारियों  के मधुर मुख के। या… क्या वही जो रस समाता तान के उस, गीत के अवधान से जो उपजता है। या… क्या वही है  वो सयाना पत्थरों के रंग में  रस ढूंढता जो विकल रहता। यदि नहीं तो क्या वो वह… है, छोड़ कर घर बार जो अपना मृदुल परिवार जो विचरता वन भूमि अंतर पुलिन गंगा जमुन के तर  मौन चादर ओढ़ कर जो ध्यान की है धुनि रमाता। शांत तन और शांत मन ले दुनियां को खुद में समाता। मुक्त जो है बंधनों से, मुक्त जो है स्वजनों से, मुक्त है जो मुक्तता से मुक्त है जो आत्मता से। संयमित जीवन है जिसका भ्रांति से जो दूर है, क्या वही रस चख रहा है जो रसों से दूर है। पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे। प्रतीक्षा में। आपका: जय प्रकाश मिश्र जीवन भोग में नहीं योग, त्याग, समर्पण, वैराग्य में है। जीवन और समय का स्फुरित आनंद मुक्त व्यक्ति ही पा सकता है। ...

लकड़ी भी थोड़ा पानी सोख ही लेती है।

क्षणिकाएं 1. आओ महल  एक रेत का  हम तुम  बनाएं, देर थोड़ी सी,  ही, बैठें  पर  मुस्कुराएं 2. जिंदगी की  नाव पर  बैठा हुआ मैं बह रहा हूं काल के  दुश्चक्र में। 3. जिंदगी की नाव पर बैठा हुआ मैं  बह रहा हूं, काल के मझधार ऊपर,  छोड़ती तट, नाव बहती, जा रही है नित नए, अंजान से, घाटों को मिलकर। खुल रहे पन्ने, किताबो के, हैं जैसे पढ़ रहा, मैं बैठकर, तल्लीन होकर, पल पल, नजारा बदलता, मैं देखता हूं छूट जाता, हर कोई, सांसों में जुड़कर। कौन हो तुम..?  साथ में,  कब तक रहोगे..? साथ की नावें  कहां तक साथ देंगी.. साथ बह कर। साथ देंगी….ये वहां तक! सोचते हो  तुम जहां तक! कुछ तो सोचो! मजबूरियां... हैं! साथ... इनके, ये हवाएं,   ये फिजाएं,  गरजतीं ये बदलियां.. दौड़ करती… धार.., यह,  चमकती… ये बिजुरियां…। देखते ही देखते नर्तन में समाए, लहर के जाने न  कितने द्वीप  अब तक, पास बैठा  देखता हूं।  जानते हो..?  दिल जुडे थे,  मीलों चले थे। संग संग सिले थे। सुंदर बहुत थे,  क्या क्या कहूं मैं अ...

फिर भी आंखों से आंख मिलाती आंखें

कहने..को तो  मे..रे मसाइल.. बहुत हैं, करें गौर..तो  गाज़ा ए इजराइल.. बहुत हैं। वो खाम.खा  तोहमतें… लिए  फिरते रहे, देख ना  खुद के भीतर  कबा.इल बहुत हैं।   ये संघर्ष जो जीवनी शक्ति है, जीवन उससे मुक्त कभी नहीं रहा। मानव की फितरत है अशांति में जीना। आराम और समरसता से रहना आसान तो है पर हमारी प्रवृत्ति ही आसान को कठिन बनाकर फिर उसे जीत विजेता बन खुश होने की है। अपने भीतर के की दुविधाओं, और अनावश्यक इच्छाओं को जीतना ही सुखी जीवन का रास्ता है। फे..र लो नजरें,  तो, न..हीं कुछ है, दी..द, अस्ली हो  तो बहुत कुछ.. है। ये दुनियां.. है,  व्यापार यहां होता है, सौदा लोगों का  सामान संग होता है। संवेदन शील, करुणावान के लिए दुनियां के दुख दुख हैं, कठोर हृदय के लिए कुछ नहीं। संसार की गति नृसंश है, लोग धूर्त, और रहस्य की गांठों से भरे हैं।  अपनों अपनो  की ही बात में  बंटी दुनियां, देश, धरम, जात के आधार  पे बंटी दुनियां। खानपान  रीति नीति  में ही सिमटी  दुनियां, सत्य,न्याय,  प्रेम, दया साथ में बुनती दुनियां...

किसके लिए, पर फड़फड़ाते, उड़ते रहते, ये परिंदे

आधार अपनी  बुद्धि का क्या? संग किसके  खेलती यह! पांव के नीचे  जमीं का,  राज कैसे  खोलती यह? पृष्ठ जो  फैला हुआ है,  ज्ञान के पीछे  गहर में, सज रही  दुनियां ये कैसे देख तो,  सहरे सजर में। शब्द हों  भाषा या  बोली,  भाव,  शिखरों,  घाटियों में, कौन है वो  पूज्य....  जिसके गीत सारे...  गा रहे हैं। गान… किसका हो रहा है, किसके लिए हैं  पुष्प खिलते? किसलिए तूं  जन्म लेता? किसके लिए  यह सूर्य उगता? कौन है वह?  जो छिपा है कंदराओं  के हृदय में। किसलिए  ये मस्त भौरे ओढ़ते….  परिमल की चादर ? किसके लिए  आनंद होता, किसके लिए हैं सुमन खिलते ? मन हृदय के  बीच तेरे… कौन है जो  उमगता है। किसके लिए  पर फड़फड़ाते उड़ते रहते  ये परिंदे। एक... है,  वह.... एक.. था,  एक.. ही होगा  हमेशा...। हां वही... है,  "सच"... वही है!  "सब"... वही है! जान तूं...! जय प्रकाश

अपनों से ज्यादा, अपने में ही, खोने लगा हूं।

बाहर देखता, बस  यूं ही चला था आज, कुछ अन्मनस्क सा पर चपल दृष्टि साथ। फिरता  अपनों,  औरों  और खुद के  भीतर  सच, मन को सम्हाले। देखता हूं खिले फूल,  झुकी पत्तियां,  परिंदों के घरौंदे, डूबता सूरज,  भागती चिड़िया,  फड़फड़ाते पंख  कुछ आर्त आवाजें,  कुछ परिंदे, आज की आखिरी उड़ान के साथ। बढ़ती हुई शीत लिए ये शाम। धुंधलाता आकाश,  धरती,आकाश में बढ़ती शांति। कूदते बच्चे,  बूढ़ों की निचुड़ती निगाहें,  आकारों के किनारों को-  छुपाती कालिमा,  तम का बढ़ता राज, खिसकता उजाले का डेरा,  रुआंसी लड़की सा-  मुंह लिए ये शाम। भीतर बढ़ता अकेलापन,  लौटी गौरैया की चिंचियाहट, घने पेड़ों के हृदय, बिना पत्तों की- सूखती टहनियों वाले-  ऊंचे पेड़ की चोटी, अपने समय की उच्चतम-  ऊंचाई से  आकाश में चुनौती लेती। उस निजन शाख पर  बैठा अकेला  सिकुड़ता  एक पंछी,  जीवन की सांझ में लड़ता  हार से बहुत दूर। आकाश भर में फैली,  रजत लेपित, अंत:दीप्त  विस्तृत चादर को  तेजी से समेटते ...

रस बरसते, तृप्त होते, लोग देखे

पूछता हूं,  सोचता हूं,  जब अकेला  बैठता हूं, जाने न  कितनी बार इस प्रश्न में  मैं उलझता हूं। कुछ प्रश्न हैं मेरे "कहां आलंब है जीवन के पटल का ?" उठता हुआ..... यह समय का पट... या भागता... इंसान का पद। किस घड़ी  ये हो बराबर रुक.....हैं, जाते ठिठक... जाते,  बढ़... न पाते। कौन.. सीमा बांधती है !  भागने से रोकती है। क्या ऊंचाई यहीं तक थी! क्या शक्ति का अवसान, था यह! है कहां आलम्ब इसका पूछता हूं। लो, झुक गया, आलंब से यह हो गया अवनत,  शिखर से। काश! उसपर  रुक ये पाता। एक क्षण विश्राम पाता। भागता ही रह गया यह, पहुंचते ही ढल गया यह। सोचता हूं बैठ कर 'मैं' फिर  बैठकर 'मैं' मुस्कुराता। था कहां आलंब इसका ढूंढ पाता। कैसा शिखर है, अद्भुत इतर है, दोनो ढलाने एक संग.... एक आ... रही, एक जा.. रही,  कोई इस तरफ, कोई उस तरफ। बीच में आलंब है यह एक क्षण का खेल है सब देख लो दोनों तरफ  एक साथ सब,  एक बार बस चलते बनो,  उस पार अब,  क्या था यही  आलंब इसका सोचता हूं। मैं…… देखते ही डर गया ! थोड़ा डगमगाया ! उतर गया। कितना कठिन है ! खड...

एक टिकोरा चाहिए, बस मन लगाने के लिए

क्षणिकाएं 1.  इस झिलमिलाती  चमक को  तुम  यूं....न देखो; किस्से बंधे हैं,  मोड़ के,  हर झिल मिलों में।  ढो रहे हैं,  भार अपना,  आज भी,  वो जो थे अंटके  साथ इनके जिंदगी में। सच सुनोगे! तो सुनो; कुछ तो मिटे,  कुछ मर मिटे,  कुछ आज भी तैयार बैठे..... कुछ के केवल,  दिल थे टूटे। और जो  बाकी बचे हैं,  देखते हैं,  आज भीं  इन झिलमिलाें को तुम्हारे ही जैसे। जय प्रकाश दुनियां में भौतिकता का जादू जाने न कितनो को निगल गया, पागल बना दिया, आदमी के स्तर से नीचे गिरा दिया। पर आज भी उसी कूप में लोग गिर परेशान हो रहे हैं। इसलिए जीवन सादा और निश्चिंत जीना चाहिए। 2. क्षणिकाएं मैने सुना था एक दिन, कोई ये कहता जा रहा था। "एक टिकोरा चाहिए  बस मन लगाने के लिए।" फिर भी  देखता हूं ; स्कल्स को चलते हुए! नित भागते, बकते हुए जिंदगी जीते हुए। एक क्यों? जाने न कितनी! टूटीं हुई,  उस खाट को  उठते हुए! अस्थि पंजर  हिल गए हैं, सांस, रुक रुक चल रही है। फिर भी अरे! कैसी  ये अपनी जिंदगी है घाट पर भी चल रही ह...

फूल की खेती हुई होगी, समझ तूं, इसके पीछे

सोचता हूं, आदमी जब  सोचता है खुद में अंदर…, सच… को..ई फिज़ा… तो बन..ती ही होगी, उनके भीतर…। साथ देने  तब हवाएं जन्मती होंगी,  वहीं से बास लेकर,  उन फिजाओं  संग  बस,  कर,  कुछ समय  तक, मुक्त रह,  वो  टहलती होंगी वहीं पर। निकलती हैं,  क्या यही ? आवाज बनकर, स्वर में सुंदर। सोचता….हूं! महक, तेवर, टोन लेकर, व्यापती हैं……  इस धरा पर । बादलों सी थोड़ा.. ऊपर जिंदगी पर। घेर लेतीं, उन मनों  को, प्यास होती  जिनके अंदर। देखते ही देखते,  वो बरस पड़तीं,  सावनी सी। भीग जाते,  हृदय अंतर,  जाने न कितने विकल जन गहराइयों तक। क्या यही है अंत न! न!  ये तो बस शुरुआत है,  जो फिजाएं मन बसीं थी उनकी ही वर्षात् है। गर खिले थे फूल  उस दिन मन में उसके, फूल की खेती, हुई होगी  समझ तूं इसके  पीछे। बस, इतनी ही बात  थी कहनी मुझे,  सर, आपसे। आप कुछ  अच्छा बुने,  फूल बिखराएं यहां।  न कि  कांटे सींचे  हाथ से। जय प्रकाश लोक मानस में जो विचार, भावनाएं बसती हैं, समय पाकर व...

नजर आतीं जब सुनहरी पत्तियां इस पेड़ की,

1.  नजर आतीं जब  सुनहरी पत्तियां  इस  पेड़ की, शंकु…., सा  आकार इसका  घूमता है  जेहन में। 2.  घूम आता हूं पुराने पल जो गुजरे थे कभी। एक छाया गुम  हुई थी बादलों में। 3.  मैं न जानूं, कौन से पनघट गई वो। या खड़ी है आज भी उस भोर में। 4.  पांव सा लंबा  तना लेकर खड़ी वो  देखती है, चुप अकेली  पार्क में  हरिताभ  द्युति की  आड़ से। 5.  एक घेरा  कटि से नीचे  लटकता है, सुरमई सा रंग लेकर,  चमकता है। चूनटें….  इन पत्तियों की कोर... पर, झिलमिल… फिसलती…  सरकतीं… हैं बाल मन  मेले में जैसे  भरमता है। 6. रंग फुनगी का बताऊं हाय! कैसा  काषाय मिल कौशेय से कुछ कह रहा था। 7. अंग हैं सुकुमार  कितने शीर्ष पर  “उर बंध” से है “लर” बंधी कोई नवेली। 8. कोमल, तरल, तैलीय, रस है बह रहा, लालिमा ले “फूल-कदली” पुष्प बन, अनुराग की। 9. रंग  गुलाबी,  संग मिल कुछ जामुनी  हो इस तरह है आज वे मुझे दीखतीं। या धानी, सुनहरी गिलहरी इस पेड़ पर चढ़  खेलती हो आज जैसे कुलबुली ऊपर...

गांव की गलियां तुम्हें लेकर चला मैं

 गांव की गलियां तुम्हें लेकर चला मैं। मित्रों, एक गुजारिश है। अपने फोन से एक मैसेज आगे जुड़ने के लिए जरूर भेजें मेरे व्हाट्सएप पर और निम्न में से जो चाहे चुने। 1. अच्छा लगता है आगे भी भेजें 2. बंद करें। 3. सुधार करें 4. जरूरत नहीं है जिससे मैं आगे अपना मार्ग चुन सकूं। आपका आभारी हूंगा। गांव की गलियां तुम्हें लेकर चला मैं अगर सुनो तो,  तुम्हें सुनाऊं,  एक कहानी गां…व की। नीम निमौरी थी घर बाहर बगिया थी एक आ…म की। कौआ, तोता, कठफोड़वा सब बैठे रहते डा…ल पर, गैया, बछरु, बैल, भैंईसिया  भोंकरा करते रा…त भर। खटिया ऊपर बैठ बकरिया जाने क्या बतियाती थी.., सुग्गा, मैना, तोता, तीतर गला फा..ड़ चिल्लाती. थीं। चीतल एक रहा करती थी पीपल की उस डाल पर। नीचे नदी बहा करती थी, कल कल करती रात भर। खेत, मेड चहुंओर वहां थी,  हरियाली घनघोर वहां थी,  कुटिया एक गांव बाहर थी, फुलवारी चंहुओर वहां थी। पिंहक पिन्हक कर मोर मयूरी झुलते झूला रात भर, डाल डाल पर कुहुक कोइलिया पिंहका करती रातभर। सुबह सबेरे खुब भिनसेहरा। जब सोतें सब लोग हैं शहरा, गांव गली में चिड़ियां उड़कर धूम मचाती थी उड़ उड़ कर।...

रोक लेना, अपने आंसू, रो न देना।

आज के माहौल पर लिखी पोयम आपके नजर है। बृद्ध, अशक्त, पिता, मां जिनसे उनके बच्चे अन्यान्य कारणों से साथ नहीं हैं, उनकी आस और मानसिक स्थिति वर्णित है। जिस जगह पर मैं. खड़ा हूं वो.. जगह. तुमसे दूर… है। तुम चांदनी. के पास… हो,  मैं… मुश्किलों.. से दूर.. हूं। भाव:  अपने बच्चों के इंतजार में, अब वे नहीं रहे। पर दो लाइन लिख गए हैं अपने बच्चे बच्ची के लिए “तुम अपनी आनंद निलयम दुनियां में रहो, मेरे लिए अब परेशान न होना। अब हम किसी तकलीफ में नहीं, संसार से ही मुक्त हैं।” तूं, मांगता तो,  आज भी होगा  “वही”.... “जो”....,मांगता  तेरे.. लिए मैं  था कभी...। तूं आज भी ‘अपनी समृद्धि, आनंद के लिए’  इतना बिजी है, मुझे समय नहीं दे पाया। पर मैं तेरे लिए सदा प्रभु से तेरी ही कुशल, कल्याण और समृद्धि, वही मांगा जो तूं अपने लिए चाहता है।  नीचे अपनी भावना को अपने बच्चों को वृद्ध मां पिता बता रहें हैं। अपनी हेल्प की लिए अशक्त होने के कारण उनकी उन्ही उंगलियों की आज सहारा चाहते है जिनको पकड़ कभी उन्हें बहुत प्यार से घुमाते थे। अपने इलूजन ऑफ माइंड की स्थिति में उन उंगलियों की प...

कोई लहरा आ धमकता घेरता जब

1. भावार्थ क्रमवार नीचे लिखा है। एक दिन, खुद खोजता  बचपन को अपने,🚶 फंस गया वह  उस कंटीली झाड़ से। ☣️ जो खड़ी थी,  आज भी ठीक वैसे ही, वहीं छोटे नुकीले,  बदन भर, कांटे लिए, 🪸 उस... पुराने,  पोखरे के,  पार्श्व में।🌫️ 2. वो पुराना पेड़,  पीपल का खड़ा,  पहचानता  कुछ कुछ उसे था,  सो..चता,  संकोच..ता,  पर.. झांकता।🥀 बस.. शी..र्ष पर ही  शे..ष थोड़ी.. पत्तियों की  ओट से। या.. द में खोया हुआ…. “जब गांव के बच्चे सभी.. थे झूलते झूला इसी की डालियों की गो..द में।”🎢 3. चढ़ते.. हुए, सावन के संग संग  बरसती, फुर फुर्र फुहारो बीच में 🎊 सब खेलते चकई, कबड्डी, कंचियों  का खेल मिलजुल, इसके ही नीचे। लड़ते, झगड़ते🤼 फिर एक होते। 4. दौड़ते…,  घोड़ों की टापाें,  को समेटे, कोई लहरा…, 🫧 आ धमकता  घेरता जब था.. भिगोता, ☃️ दौड़ कर हम भागते भगते… खड़े होते, इसी की छांव में तब….।🏖️ 5. तब…, कितना घना था, 🪴 पत्तियां इसकी,  कभी…  बच्चों के  दिल सी.. 👯 हि.ल.क.ती थीं।  स्पंदनों सी,  थि.र.क.ती थीं,...