जिसे तुम, न जानना चाहते हो, न मानना ही,
एक दिन मैंने ऐसे ही बैठे बैठे अपने कमाऊ पूत से कहा, कुछ ज्यादा नहीं तुम मुझे बस टुकड़ा भर जमीं, थोड़ा आसमां, थोड़ी धूप, बहुत थोड़ी सी किसी हरे पेड़ की छांव, अपनी स्वतंत्रता से अपने पंखों पे सुदूर देश से आती हवा। एक साफ मीठे पानी का कुआं, छोटी बहुत छोटी पर्णकुटी। दो क्यारियां हरी भरी पौधों से लदी। दे दो बस। उसने पूछा? कुछ धन दौलत! मैंने कहा नहीं…। बस और कुछ नहीं चाहिए, इतना गर दे पाओ तो, शुक्रगुजार हूंगा जिंदगी सारी। सोचो तो मैने मन मार कर मांगा है, अभी। मैं नहीं मांगता तुमसे, मानसरोवर सी झील, हिम से चमचमाते विराट शांत पर्वत, नदी के शीतल सिक्त हरियाले विस्तृत पुलिन, गाढ़ा नीला सुस्वच्छ घिरता आकाश, चहकती चिड़ियां। और भी नहीं मांगता तुमसे मैं बहती नदी की कल कल करती लहरें, हरियाले जीवों से भरे जंगल पर्वत, फल लगे बगीचे। कुहुकती फुदकती चिड़ियां, हरियाले विस्तृत मैदान, जादुई बादलों की छांव स्वस्थ सुंदर, नयनाभिराम आकर्षक लोग, पुष्पो से...