जिसे तुम, न जानना चाहते हो, न मानना ही,

एक दिन मैंने 

ऐसे ही बैठे बैठे

अपने कमाऊ 

पूत से कहा,

कुछ ज्यादा नहीं 

तुम मुझे बस

टुकड़ा भर जमीं, 

थोड़ा आसमां, 

थोड़ी धूप,

बहुत थोड़ी सी 

किसी हरे पेड़ की छांव, 

अपनी स्वतंत्रता से अपने पंखों पे 

सुदूर देश से आती हवा।

एक साफ मीठे पानी 

का कुआं, छोटी 

बहुत छोटी 

पर्णकुटी।

दो क्यारियां हरी भरी 

पौधों से लदी।

दे दो बस।

उसने पूछा?

कुछ धन

दौलत!

मैंने कहा

नहीं…।

बस 

और कुछ 

नहीं चाहिए,

इतना गर दे पाओ 

तो, शुक्रगुजार हूंगा जिंदगी सारी।

सोचो तो मैने मन 

मार कर मांगा है, अभी।

मैं नहीं मांगता 

तुमसे, मानसरोवर सी 

झील, हिम से चमचमाते विराट 

शांत पर्वत, नदी के शीतल सिक्त हरियाले 

विस्तृत पुलिन, गाढ़ा नीला सुस्वच्छ 

घिरता आकाश, चहकती चिड़ियां।

और भी नहीं मांगता तुमसे मैं

बहती नदी की कल कल 

करती लहरें, हरियाले 

जीवों से भरे 

जंगल पर्वत,

फल लगे 

बगीचे।

कुहुकती फुदकती 

चिड़ियां, हरियाले विस्तृत मैदान,

जादुई बादलों की छांव

स्वस्थ सुंदर, नयनाभिराम आकर्षक लोग, 

पुष्पो से भरा उपवन, तारों भरा आकाश

ओस की बूंदों से लदी साफ सुबह।

कुछ भी नहीं,

क्योंकि मैं जानता हूं!

यह कुछ भी तुम्हारा नहीं है। 

यह सब तुम्हें निःशुल्क शाश्वत दिया है, उसने

जिसे तुम 

न जानना चाहते हो

न मानना ही, पर वह दयालु है!

दाता है! रक्षक है सबका! सोचो तो!

तुम इन्हें बना नहीं सकते, 

तुम इसके मालिक होने की सामर्थ्य भी नहीं रखते।

इनके अलावा तुम मुझे सब दे सकते हो

जानोगे क्या, क्या?

ऑक्सीजन प्राण विहीन ठंडी शीतल मृत वायु,

धूल, गंदित, दुर्गन्धित प्रगति,

बिना मस्तक के तेज भागती मशीनरी

नकली इंटेलिजेंस, अनुभूतिहीन माहौल

प्रदूषण भरी कटु धूप, दम घुटाती हवा

और बीमारी की पृष्ठभूमि लिए दवाएं।

थोड़ा पानी तत्व विहीन, फिल्टर का।

गीतों से भरा अपना पुराना गांव, 

मैं अब सोच भी नहीं सकता।

Jai prakash mishra

Comments

  1. ईश्वर आपकी लेखनी को और विस्तार दें, तथा इसके लिए अच्छा स्वास्थ्य भी प्रदान करें यही कामना है।

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    1. मित्रवर, आप पढ़ते हैं मेरा पारिश्रमिक मुझे मिल जाता है।

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