मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से
पद प्रथम: बेटियां और मैं
मेरी, छोटी… सी, बेटी
बड़ी हो गई..
जब वो.. पर्दे से
सट के.... खड़ी हो गई।
देहरी.. घर की…
दीवट..से धीमे.. कही,
सुन! जो नटखट थी कल..तक
बड़ी हो गई।
है सुना.., आज मैने,
जो थी, चुलबुली...
अरे! अब वो! आगे से आबे-हया हो गईं।
एक दीवार... लंबी,
पुश्त से, थी खड़ी..
दब के, धीमे से…कानों में मेरे कही..
एक चिड़िया थी... घर
बाग़बां से उड़ी।
आज मैने ये जाना, मेरी लाडली
इतनी जल्दी
अरे हां! बड़ी हो गई।
पद दूसरा: अंतर्दशन का अवतरण
न, जाने.. कब
.... उतर आए!
जहन में.… ठीक सीधे..
मुझे तो शब्द की..
तुरपाई में
रेशम सा सजाना है उसे।
कौन, जाने!…
कौन सा!
परिधान पहने!
कौन सा भूषण.. पहने!
वक्त की पाबंदियां रक्खे... या छोड़े,
मुझे तो.. शब्द की….
मचिया पे, बैठा के,
अपलक..निहारना है उसे।
वो..
फूलों की..
फिरन पहने..
या लिबास कलियों का..
देख तो! क्या पहन आई वो,
सरस्वती....
मैं जानता ही... नहीं।
कल चांदनी.. हंसती रही...
देखकर उसको... चांद खामोश रहा...,
रात निस्तब्ध चुप थी!
एक तारा दूर.. टिमटिमाता रहा..
रातभर...
देखता… उसको,
उस वीराने से
अकेले… संग पूरी कायनात..
वो खेलती रही...
मेरे आंगन में... नन्हीं बालिका की तरह।
मैं बैठा, देखता रहा, मूढ़ बना
सुबह तक, वैसे ही, उसको।
(स्वरचित मूल रचना)
जय प्रकाश मिश्र
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