वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता

आडोलित 

कर्णो के कुंडल 

उषस मुख की सुंदरता पर

हिल-डुलती, 

चमचम यह क्षणक्षण, 

पैजनियां की बजती छम छम

परिवर्तन! छवियों में, 

रूप बदलता

लावण्य ढुलकता 

पृष्ठों पर! 

क्या सुंदरता है, 


तो! 

उषा जैसी ही सुंदर!  

लालिमा लपेटे, 

कौन खड़ी है! 

मेरे अंदर! आ बैठी है! 


गाढ़े नीले 

पट से चलकर,

पूरब में द्द्युति धारण कर कर! 

आभा बिखेरती!  

टिम टिम करते 

तारों के, 

बुझते आंगन में, 

नव्य नवेली! 

रेशम रेशम सी, यह नरम मुलायम! 

कौन खड़ी है!  द्वारे मेरे! 

आज सबेरे! दर्शन देती है।


सहलाती, 

छू कर पलकों से 

सोये फूलों का स्वप्निल मन,

स्वर्णमयी मुस्कान लिए 

वरती है तन मन। 

सबके ऊपर 

पसर रही 

बेसुध कर जीवन।

ओस में भीगी 

कलियां कैसे सिहर रही हैं

देखो तो आने से, इसके।

सुबह सबेरे 

चिड़ियां सारी चहक रही हैं।


कहां गया वह 

वैदिक ऋषि

जिसने देखा था, 

उषा का...

यह रूप चिरंतन! बैठा बैठा, 

मैं उसको ही सोच रहा था। 

खोज रहा था,... 


यही 

इओस बन 

दिखती थी क्या ?

ग्रीक देश में! 

स्तुति जिसके गाते थे वे 

हर प्रातः में! 

वह रूपवती कन्या 

सुकुमारी 

आंखों में सौरभ भर अपने, 

प्रातः आज भी दिखती है

इस नील गगन में 

देख रहा हूं।


प्रिय है 

यह..... 

उस.... व्रतधारी को

नित.... तपता जो 

जीवन दे... के

सविता

कहलाता है जग में; 

प्राण निछावर करता सबपर, 

पर जैसे ही 

किरण फेंक कर 

आलिंगन

की सोच ही पाता 

यह अदृश्य हो जाती 

फिर से, 

ललचाती, ले जाती, उसको

पूरब से पश्चिम तक 

सच है,

प्रेम बिद्ध ही कर कर उसको।


मुझको कष्ट तभी होता है

जब जब तपता, 

आग में जलता,

पीछा करता, 

वो, पूरे दिन पीछा करता,

दूर पहाड़ों के पीछे 

खोजता, खोजता 

दिन भर का वह थका थका सा 

अस्ताचल में घिर जाता है,

विश्राम श्रांति के 

पथ पर आगे बढ़ जाता है…।


फिर रोती यह आंखे मूंदे  

लाल किए मुंह

बूढ़ी हो कर, प्यार की

खातिर! आखिर!  

फिर से!  संध्या बन

उसके पीछे, 

पीछे फिरती है, 

पर उस वीर ने 

नहीं कभी पीछे देखा है

सदा व्रती है, कर्मों से अपने।

शीर्ष है वह, 

कभी च्युत नहीं होता है।

वह सूरज है अस्त तो होता है

पर कभी मर्यादा से नीचे नहीं गिरता है।

जय प्रकाश मिश्र



Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं