आंखों में तो बसती... है कागज पे नहीं छपती..।

मैं जब भी बनाता... हूं,

“वो” तस्वीर नहीं बनती,

आंखों में तो बसती... है

कागज पे नहीं छपती..।

 

खिंच जाती... हैं रेखाएं 

जब मैं ही नहीं.... होता,

कोई जैसे निकल आए 

अनजान सी गलियों में।

जय प्रकाश मिश्र

ऊपर की पंक्तियां मित्र लव प्रकाश जी के लिए

मुख्य कविता

पेन की निब से 

निकलती स्याह स्याही,

जो किसी के

हाथों में है,

और 

किसी के मुंह से

निकलती आवाज

जो किसी के 

प्रभाव या अहसानो में है,

अंतर ही क्या है?


दोनों, 

भीतर के भाव 

ही उगलते हैं।

जिसके भी 

हाथ या प्रभाव

में रहते हैं।


आखिर शब्द ही 

तो बनकर 

निकलते हैं।

जबानो से बाहर या 

कैनवस के ऊपर।


किसी का ईंधन

हवा है तो 

किसी का स्याही।

गुमान दोनों को है।

जबान को रसीलापन,

तो स्याही को पानी। 


यही रस पना 

ही तो आधार देता है,

प्राण भरता है,

शब्दों में

स्नेह और स्नेहन 

के बिना

शब्द कागज पर हों 

या

शब्द जबानों के

आगे नहीं बढ़ सकते। 


समझिए

बोलने या लिखने

से पहले,

महत्ता है “पानी”

नहीं तो सब बेमानी।

कहां की कलम,

कहां की जबान।


पर पानी की लाज

रखना ही तो ये शब्द भूल जाते हैं।

सच कहूं तो यार 

आज कल ये दोनो

अपना जमीर 

बेंच बेंच कर 

ही खाते हैं।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: "पानी" नम्रता, आदर, इज्जत, शील, मोहब्बत, स्नेह, प्यार, शीतलता और न जाने कितनी चीजों का प्रतीक है। शब्द लिखना और उच्चारण, यह दो मुख्य संप्रेषण विधाएं है। दोनों बिना पानी के संभव नहीं, सूखे मुंह से और सूखी कलम से शब्द लिखना बोलना दोनो नहीं हो सकते। अतः कुछ भी बोलने और लिखने से पहले पानी जैसा वह अभिप्रेत है अपने अर्थों से अर्थात, शांति, तृप्ति, शील, नमी उसे जरूर बनाए रखें। प्रिय, कल्याणप्रद बोले और लिखे, यही कवि चाहता है। शब्द की आत्मा जल है, वहीं से उनका उद्भव है उसे हर हाल में जिंदा रखें।जब की आजकल लोगो की जबान और रचना दोनो पेट के लिए, बिके हुए लगते हैं और वैसा ही लिखते बोलते हैं न की पानी की मर्यादा के लिए।





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