मान रखना चाहिए, उस चेतना का

इक छोर छूटी झूमती है

लय में अपने,

था नहीं अंकुश कोई 

इस पर कभी, 

भी,

सोचता हूं!


है सभी का 

वास्ता 

सच, 

एक सा, 

ही

इस, डगर से,

फिर भी अछूती

रह, गई, 

क्यों

खोजता हूं।


टूट जाते 

क्यों, 

किनारे,

पास आकर

इस नदी के,

बह रही 

अवसान के संग 

जाने न कितने

काल से यह!

यह आदि सच 

मैं 

देखता हूं।


सब समा 

जाता इसी में

काल के संग

काल बनकर

आदि से अब तक

नहीं कोई थाह मिलती।

है भंवर कैसा,

मैं फंस कर

बीच इसके

भेद का भी 

भेद लेना

चाहता हूं।


एक डुबकी 

पत्थरो की, छातियों में

गहरी, लगाकर, 

क्या! मेरा हृदय

धड़कता 

इनके भीतर!

गहराइयों में

एक होकर,

महसूस करना 

चाहता हूं।


रेत के 

उन ढूह की

तपती शिराओं 

में नहाकर 

उष्णता के

गर्भ में क्या क्या 

छिपा है,

रूह को अपनी

जलाकर,

जानना मैं चाहता हूं।


सागरों के गर्भ में

मैं डूबकर,

उस अतल जल में

तैरती, उस

प्रकृति शिशु के

साथ मिलकर

खेलकर 

बस 

पूछना मैं चाहता हूं!

क्यों चला करतीं, 

विडोलित 

उर सदा करतीं,

लहर उत्ताल 

क्यों बनतीं

सतह पर।


चीर कर 

तन सागरोँ का

शीतला, उष्मावती

चिरकाल से क्यों?

बह रहीं 

जल बेटियां  (सामुद्रिक जल धाराएं)

प्रवाह बन 

अंतर में इसके।


वन!

वन नहीं हैं, 

वन सुवन हैं।

हां पुत्र हैं!  

रस-माधुरी के,

प्रकृति के,  

जो मां है अपनी,

जान लो!

प्राण लोगे वंश का

अवतंस जो इनका करोगे।

पाप से लथपथ रहोगे

उम्र भर यह सोच लो।


मैं जा समाना चाहता,

वन प्रांतरों के बीच में,

रह कर वहां कुछ

दिन समझना

चाहता हूं,

क्या स्वांस लेता है 

मेरे सा,

वन

वनेलों संग

निशि दिन वर्ष भर 

ता-उम्र से। 


घूम आया, देख आया

समझ,, सब, 

खुद में समाया।

पत्थरो में मैं ढला हूं

चेतना हूं, 

स्वभाव से, कर्तव्य से,

मैं हूं बंधा चिर काल से

तेरे लिए, तूं सुखी रह।

इस प्रकृति का संरक्षण

किया करता हूं मैं तेरे लिए।

मैं हूं सदा तुझसे जुड़ा,

मैं हूं तेरा अग्रज 

मुझे तुम देखो ना।

मैं हूं खड़ा तेरे लिए 

चुपचाप

सहते हुए हर ताप,

अपनी मुक्तता में

धीर बन कर बीर 

हर पल एक सा।

सदियों से लेकर

आज तक।


उष्णता के ज्वार में मैं

डूब करके देखता हूं,

चेतना तेरी, मेरी एकसार

फैली हर कणों में।

यह तपस्या लीन है,

अनवरत क्रिया विहीन है।

साधना है, 

प्राप्त करने की

प्रकृति को।

नम्रता को, मधुरता को

शीतली उस हरितिमा को

फुहार जिसके संग होगी

बहार जिससे संग होगी।

जाने न कितने! तप किए 

होंगे न तुमने। 

सोच लो!

जो विहरते 

मृदुलता के पालने,

अद्भुत अनोखे।


सम्मान करना चाहिए,

मान रखना चाहिए, 

उस चेतना का

व्याप्त है संव्याप्त

है जो हममें तुममें।

बोलकर वह रेत 

रेतस उर्ध्व होकर

दे विदा मुझको हुई

निज तपस्या पर।

क्रमशः आगे.....

जय प्रकाश मिश्र

संक्षिप्त भाव: संपूर्ण विश्व के हर प्राणी, या सूक्ष्म कण में, जल की हर बूंद में, वनों में, पेड़ पौधों में एक ही चेतना व्याप्त है। सभी एक बनकर एक साथ जीवन को और अच्छा, संसार को सुंदर बनाने के लिए संकल्पित काम कर रहे हैं। कुछ का काम हमे महत्वपूर्ण नहीं लगता, जैसे नदी, पहाड़, वन, रेगिस्तान आदि और प्रकृति फिर भी वे संकल्पित और वचन बद्ध है अपने दायित्वों को लेकर आज भी उतने ही जैसे सदियों पूर्व। वे ताज़ी हवा, वर्षा, नमी, पानी, उर्वरता आदि में हमे अपना अप्रतिम सहयोग सदा देते आ रहे हैं। आदि चेतना का आदर हमे निश्चय करना चाहिए।

Comments

  1. अति‌ सुन्दर रचना

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  2. भाव की गंगा अनूठी
    रोज सारे डूबते उतराते रहे हैं
    मन विलक्षण गहराइयों का सागर है
    लेकिन, मन के अनगिनत कोने
    कौन जाने रीते क्यों रहे हैं
    मिश्र जी आपकी इस सुंदर रचना से प्रेरित होकर चंद लाइनें सप्रेम भेंट में।

    ReplyDelete
  3. आप सभी को मेरी यह रचना अच्छी लगी यह जानकर मैं आह्लादित हूं। आप लोग जब कमेंट्स करते हैं तो लगता है मेरे कविता की सांस चल रही है। वह जिंदा है। अपनी रचना जीवित हो, कुछ गति शक्ति उसमें हो यही मेरी प्रेरणा है। आगे मैं और अच्छा दून मेरा प्रयास होगा।

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