लकड़ी भी थोड़ा पानी सोख ही लेती है।
क्षणिकाएं
1.
आओ महल
एक रेत का
हम तुम
बनाएं,
देर थोड़ी सी,
ही, बैठें
पर
मुस्कुराएं
2.
जिंदगी की
नाव पर
बैठा हुआ मैं
बह रहा हूं
काल के
दुश्चक्र में।
3.
जिंदगी की नाव पर बैठा हुआ मैं
बह रहा हूं, काल के मझधार ऊपर,
छोड़ती तट, नाव बहती, जा रही है
नित नए, अंजान से, घाटों को मिलकर।
खुल रहे पन्ने, किताबो के, हैं जैसे
पढ़ रहा, मैं बैठकर, तल्लीन होकर,
पल पल, नजारा बदलता, मैं देखता हूं
छूट जाता, हर कोई, सांसों में जुड़कर।
कौन हो तुम..?
साथ में,
कब तक रहोगे..?
साथ की नावें
कहां तक साथ देंगी..
साथ बह कर।
साथ देंगी….ये
वहां तक!
सोचते हो
तुम जहां तक!
कुछ तो सोचो!
मजबूरियां... हैं!
साथ... इनके,
ये हवाएं,
ये फिजाएं,
गरजतीं ये बदलियां..
दौड़ करती… धार.., यह,
चमकती… ये बिजुरियां…।
देखते ही देखते
नर्तन में समाए,
लहर के
जाने न
कितने द्वीप
अब तक,
पास बैठा
देखता हूं।
जानते हो..?
दिल जुडे थे,
मीलों चले थे।
संग संग सिले थे।
सुंदर बहुत थे,
क्या क्या कहूं मैं
अंग अंग मिले थे।
अब देखो ना!
एक जैसे भूलते हैं
हम सभी,
वो एक सच,
उम्र के इस घाट पर।
जब नाव ही
खुद हो तरल,
तैरती
उस जल के ऊपर
खिल रहा, हो
नील इंदीवर
जहां पर।
तिर रहीं है,
डगमगाती
स्पंद लेकर।
देखो ना,
अब इस उम्र में भी।
छू हैं लेती,
लड़ लड़ाकर
आपस में अंतर
....तर, अहा!
लकड़ी सी होकर!
लकड़ी भी थोड़ा
सोख ही लेती…. है पानी।
पर सत्य क्या है,
सारी नावे
मुक्त हैं।
तैरने को,
इस
समय की
बहती नदी पर।
भाव: हम सभी प्रकृति के पुतले हैं। संवेदनाओं के संवेग से जुड़े होते हैं। पर हर जीवन अकेले ही आता और जाता है। जीवन उपवन में सुख दुख के झूले को साथ साथ झूलने के बाद भी हर प्राणी अपनी अपनी इकाई होता हैं। संसार में अनेकों कारण और स्थितियां हमे आपस में मिलाती और जुदा करती रहती हैं। अनेक बार नील कमल रूपी सुख आदि में फंस हम डगमगा भी जाते हैं। सभी एक ही सत्य में एक साथ ही सिले हुए हैं।
Good feelings
ReplyDeleteमुझे आपकी अच्छी अनुभूति की शीतलता प्राप्त हुई। मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
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