फूल की खेती हुई होगी, समझ तूं, इसके पीछे

सोचता हूं,

आदमी जब 

सोचता है

खुद में अंदर…,

सच…

को..ई फिज़ा…

तो

बन..ती ही होगी,

उनके भीतर…।


साथ देने 

तब हवाएं

जन्मती होंगी, 

वहीं से बास लेकर, 

उन फिजाओं 

संग 

बस,  कर, 

कुछ समय 

तक,

मुक्त रह, 

वो 

टहलती होंगी वहीं पर।


निकलती हैं, 

क्या यही ?

आवाज बनकर,

स्वर में सुंदर।

सोचता….हूं!


महक, तेवर, टोन लेकर,

व्यापती हैं…… 

इस धरा पर ।

बादलों सी

थोड़ा.. ऊपर

जिंदगी पर।


घेर लेतीं,

उन मनों 

को,

प्यास होती 

जिनके अंदर।

देखते ही देखते, 

वो बरस पड़तीं, 

सावनी सी।

भीग जाते, 

हृदय अंतर, 

जाने न कितने

विकल जन

गहराइयों तक।


क्या यही है अंत

न! न! 

ये तो बस शुरुआत है, 

जो फिजाएं मन बसीं थी

उनकी ही वर्षात् है।


गर खिले थे फूल 

उस दिन

मन में उसके,

फूल की खेती,

हुई होगी 

समझ

तूं इसके 

पीछे।


बस, इतनी ही बात 

थी कहनी मुझे, 

सर, आपसे।

आप कुछ 

अच्छा बुने, 

फूल बिखराएं यहां। 

न कि 

कांटे सींचे 

हाथ से।

जय प्रकाश

लोक मानस में जो विचार, भावनाएं बसती हैं, समय पाकर वही यथार्थ में परिणत होती हैं। लोगों में भी फैलती भी हैं। हमारे मानस का निर्माण, समाज का निर्माण इन्ही छोटी छोटी धारणाओं,स्वीकृतियो के माध्यम से ही होता है। आज अगर कोई कोना स्वस्थ मन से खुशहाल है तो स्वस्थ विचार जरूर पहले मन मस्तिष्क में बोए गए होंगे। अतः अपने पास हमे सुंदर अस्तित्व ही रखना चाहिए। दुर्गंध को, हीनता को दुत्कारना चाहिए।





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