परिवर्तनों का क्रम छुपाए, चल रहा, अंतरक्रमों में।

विस्मय भरा यह विश्व…

कै…से 

सतत है गतिमान…

देखो……,

परिवर्तनों का क्रम छुपाए,

चल रहा,

अंतरक्रमों में।

या

चलाता है कोई इसको

छुपा बैठा कहीं पर !

खोजते हैं,

आज चलकर।

भेद इसका ढूंढते हैं

हम सभी, 

एक साथ,

मिलकर।

अनेक आश्चर्यों से भरा यह संसार काल, रूप, अवस्था, रंग, मन, शक्ति, सभी तरह लगातार परिवर्तनों से भाग रहा है। कुछ भी कहीं भी स्थिर नहीं है। हर परिवर्तन में एक नया क्रम नया रूप, आकृति, ज्ञान छुपा रहता है। इसको समझने की थोड़ी कोशिश साथ मिलकर करते हैं।

वह कौन है, 

जो दीखता 

हो.., खींचता.., 

नित् नवल.. 

रच.., रंग..

सतत सुंदर.. 

स्वप्न सा, 

सुंदर

सुकोमल 

इंद्रधनुषी ये

इबारत काल पर।

समय की इस विशाल शिला पर सुन्दर और कल्याणमयी विजय गाथाओ को वह कौन है जो रोज ही अकल्पनीय रंगो को रच कर और उनसे रंग कर रिकार्ड बना रहा है। उस कर्ता को खोजते हैं जो कालजयी रचनाकार सा दिखता है।

अनवरत अपनी कथाएं

लिख रहा जो 

इस धरा पर 

अभय होकर!

संग मिलकर

परिश्रमो का

रंग भरकर!

अनादि काल से, निर्भयता पूर्वक, अपने परिश्रम से, अनवरत वह कौन है जो पृथ्वी पर अमित दिखती काल कथा अंकित कर रहा है।

जी! हमीं हैं,

हां! हमीं हैं, 

सच! हमीं है। 

काल का

मस्तक नवाकर

लिख रहे उस भाल पर

अपनी विजय की 

घोरतम, विज्ञान की

अद्भुत कथाएं।

जी हां वह यह अपराजेय मानव प्रजाति है जो अपने विज्ञान प्रेरित ज्ञान और शक्ति से अपने विजय की कठिन यथार्थ कथा काल के पट पर सतत अंकित कर रहा है।

कौन है हम! 

कौन साथी! 

साथ अपने, 

सोचना तो!

क्या यही हैं? 

क्या सही है?

देखना तो;

आखिर मनुष्य में वह क्या है, उसके सहायक कौन हैं किसके बलबूते वह यह सब करता है इसको खोजते हैं। मैं अपने अनुसार कुछ इंगित करता हूं।

संसार क्या है ! 

“पदार्थ”, है!

संग “शक्ति समुच्चय” 

बोलना तो।

पहले तो यह जाने की संसार है क्या? तो मेरी दृष्टि से संसार केवल दो चीजों से बना है, पहला पदार्थ जगत अर्थात भौतिक वस्तुएं, और दूसरी इसमें समाई शक्तियां जो अरूप है पर आश्रय इन भौतिक पदार्थमय संसार का ही लिए हैं।

कौन कर्ता?

कौन भोक्ता?

क्या यही…. 

“प्राणी जगत” है! 

है मनुज और 

जीव सारे 

संग इसमें!

है जहां तक

यह चराचर

सृष्टि में फैला हुआ।

इस सम्पूर्ण सृष्टि का कर्ता और भोक्ता परिणामों को लेने वाला कौन! मेरी समझ से समस्त प्राणी ही जिनमे मानव भी हैं, उन्हीं में वैश्विक चेतना भी स्थित है और भी माध्यम हैं कर्ता और भोक्ता भी समष्टि के हैं।

कौन संयोजक

है इसका

बोलना तो?

मन वही 

जो इंद्रियों संग है विचरता 

साथ तेरे, 

कल्पना के रंग भरता 

तन में तेरे;

सोचना तो।

इन प्राणियों को सांसारिक गतिविधियों में नियोजित, प्रेरित, उत्साहित कौन करता है? मेरी समझ से वह इंद्रियों का रस राज मन ही है जो इंद्रियों को कल्पना के रंगों के पीछे दौड़ाता रहता है।

वो सहायक कौन है!

जो

उछलता है, 

मत्स्य सा मंदिर में तेरे

बोलना तो!

“बुद्धि” मछली सी 

फुदकती, बन सहायक,

संग लेकर 

काग सा संशय

लिए वो दौड़ती है।

ज्ञान, स्मृति को समेटे 

लपटती है हर क्षण वो तेरे ।

इन प्राणियों का इस सांसारिकता में मुख्य सहायक कौन है? मेरी समझ से वह मछली सी चपल भागती बुद्धि है, उसमे संकल्प विकल्प की क्षमता भी है अतः भ्रमित भी होती रहती है। कौए की तरह संशय लिए कूदती रहती है अपने साथ ज्ञान और स्मृति रूपी बालक बालिकाओं को भी लिए हर क्षण खेलती रहती है।

क्रमशः आगे पुनः पढ़ें।

जय प्रकाश मिश्र

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