नव तरु पल्लव सम, डोलत मन संग संग,

 वरद वर्षा

नव तरु पल्लव सम

डोलत मन संग संग,

बरसत जब वारि बृंद 

भीजत सब अंग अंग।


चमकन नभ बिजुरी 

चम चम चम लागी जब,

डरपट हिय साथ लिए 

फिरती हत भागी मैं।


वर्षा जल टपटप टप

चुअन लागी पातिन पर,

उमग उमग उर खोलत

पवन चंचल डालिन तर।


कसमसाति हिलति डारि 

झूमति समीर संग,

झोंके हैं उघाड़ देत 

डलियन के सुघड़ अंग।


रस है बहन लागा

भी…ग गया, अंतर-तर 

बरखा पटाति नाहीं

छमछमाति तरुअन पर।


वरषत जल मधु समान,

धवल हुईं पतियां सब 

मन में उदासी भरी

जाऊं केहि रहियाँ अब।


नृत्य करत सारे तरु 

ले ले मृदंग ढोलि 

गूंजति शहनाई सी

बरखा अबोलि बोलि।


वारि झरत अमृत सम

पल्लवन के कोनों से

आनंद चूंअन लागा 

पवन के झकोरों से।


श्याम जू छिपन लागे

बादलों के कोनों में

राधा बन बूंद बरसीं

भक्तन की गलियन में।

जय प्रकाश मिश्र



Comments

  1. बहुत ही सुंदर रचना

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  2. आपका हृदय से स्वागत और अभिनंदन। आप पढ़े मैं नित्य एक नवल खिला पुष्प आप सभी को अर्पित करता हूं। आप उसकी सुगंध और रंग रूप से आह्लादित हों मेरी कामना है।

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