जब नहीं होगा, कोई मेरे साथ तब ये
ये तुम्हारे
प्यार के खत…
एक दिन,
मेरे लिए..
ते..री जुबां..
'मीठी' जुबां..
बन जाएंगे।
उम्र की
बढ़ती
तपिश के
रास्तों में..,
एक दिन,
उस ....
रुपहले... पेड़
की छाया...
तले ,
कुछ देर
ही,
के लिए
बैठाएंगे।
जब नहीं
होगा कोई
मेंरे साथ,
तब वो
प्यार के
हाथों मु झे
छू जाएंगे,
एक बार
तो
सहलाएंगे।
जय प्रकाश
2. मुख्य गीत
जीवन प्रवाह क्या है ?
यह काल चक्र क्या है?
आपेक्षिक ही सभी हैं !
फिर वो निरपेक्ष क्या है?
जब गति से सब जुड़े हैं
वह अगति कहां छुपा है
जब जग प्रवाह ही है तो
वह प्रवाह-हीन क्या है।
आएं पता लगाएं..,
थोड़ी दूर तक तो जाएं,
सीमा कहां है इसकी,
उसके करीब जाएं…।
कोई शक्ति है यहां सच,
सब कुछ मगन मगन है,
स्थिर नहीं है कुछ भी
ब्रह्मांड है जहां तक…।
जब तनकर खड़े है दोनो
ये आकाश बन… रहा है।
जब करीब आते दोनों…
आकाश घुल….. रहा है।
एक समय था कि सबकुछ
चुपचाप ही यहां था,
खुद में निमग्न था सब
बस मौन ही यहां था।
गति, शक्ति, मिलना, जुलना
कुछ भी नहीं यहां था,
नीरव विश्रांति के संग
यह काल चुप खड़ा था।
कोई देवता?
नहीं था।
मानव?
कोई नहीं था,
कोई ह्रास?
तब नहीं था
विनाश?
भी नहीं था।
आकाश?
गाढ़ा नीला
हर ओर झांकता था।
जल?
रंग बदलता था,
परछाइयां के संग था।
रंग बादलों के?
थे, तब,
कैसे बताऊं
उजले….,
पर हंस के
ही,
हों,
ज्यों
आकाश
बीच उड़ते।
पर्वतों के ऊपर ?
हिम राशि
चमकती थी।
कभी स्वर्ण
कभी चांदी,
कभी भस्म
सी लगती थी।
वनांतरो के भीतर?
कोई कुहुक नहीं थी,
नद के पुलिंद?
सारे……
हरियालियों भरे थे।
कोई जंतु?
तब नहीं थे
प्राणी ?
भी तब कहां थे,
सबकुछ हरा भरा था
गुण भी तो
तब नहीं थे।
कैलाश ही बसा था
हर शिखर पर्वतों पर,
गंगा ही बह रही थी
हर अंग के धरा पर।
केवल प्रकृति
यहां थी,
खुद में मगन
थी हर पल।
सर्वत्र
खेलती…थी,
मुस्कुराती
हंसती।
संग
बादलों के
खिलती,
खेलती
धरा पर,
चहुंओर
फुदकती थी,
लहरों के शिखर
चढ़ कर।
सुरभित हवाएं बहतीं
जल को तरंग देतीं।
उच्छवास छोड़ती थी
किरणों को संग लेकर।
वह शक्ति सुप्त थी तब
विश्राम कर रही थी,
सच बैठ कर अकेले
इस जग को बुन रही थी।
क्या क्या बनाए कैसे
कितना, सभी को दे वह,
सब रह सके सहोदर
बन कर उसी धरा पर।
जो मुक्त थी अभी तक
उस शांति, सत्य से भी
जो सुप्त थे अभी तक
पिछले प्रलय से अबतक।
जय प्रकाश
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