एक दिन, मन मेरा, जा मिला एक झील से।

एक दिन, 

ये मन मेरा

सचमुच…

अचानक, 

जा मिला..

किसी... 

झील... से।

मानस सरोवर

नाम.. था, 

जिस पर लिखा...।


उसे देखता ही देखता...

मैं डूबता…और.. डूबता... 

उस झील में चलता... गया,

खो.. गया…उस झील में,

मैं था कहां…

मुझे ना पता..।


जाने कहां कब

एक होकर, मैं उठा।

मैं झील हूं..., 

ऐसा लगा।

हीरक कणों से,   (यानी तराशे हीरे के नगों सा)  

अंग मेरे हो गए हैं,

मुझको लगा।

दिप रहे हैं        (ज्योतिष्मान चमकन)

नेत्र मेरे 

अरुण जैसे,        (लाल रतनारे नेत्र)

खिल रहा, 

आकाश में 

जो 

ठीक वैसे।     (बाल सूर्य सी सुंदर ज्योतिमय आंखें)


झिलमिलाता 

गात मेरा             (गात यानी देह शरीर)

सूर्य की

पहली किरण से 

"जल फलक"  (पानी का ऊपरी पृष्ठ जहां किरणे परावर्तित होती हैं)

बन चमकता है 

स्वर्ण सा,

मैं देखता हूं।


"सौंदर्य श्री"        (सुंदरता की पराकाष्ठा)

बन नृत्य

मैं, हूं कर रहा, 

प्रकृति के

इस छोर पर, 

अनुभूति करता।

"निसर्ग का सौंदर्य"  (अक्षत, अनछुआ, ओरिजिनल)

वह जो, था कभी 

मैं "ध्यान" करता

हो गया हूं।


नग्न मेरे अंग 

ये, कैसे सुघड़ 

हो झांकते हैं,

सृष्टि के इस

आवरण से

एक होकर, 

पास में 

चिरकाल से

बैठे हुए "कैलाश" से (मानसरोवर के पास पवित्र कैलाश पर्वत है)

किस तरह

वे बात करते

भीगते है,

नवल रस में

डूबे हुए से,

देखता हूं।

 

लालिमा लालित्य।  (गुलाबी लाल मिश्रित आभा की सुंदरता)

'दाडिम फल' सरीखी (पके अनार सी सुनहरी लाल)

देख कर उसके 

मुखों पर 

नयन मेरे बिंध गए हैं।

आकाश की छाया 

सुनीली हट रही थी, (आकाश की दमकती नीलिमा)

भोर की 

इस चमकती

जल राशि 

ऊपर

तैरती 

अभिराम सुंदर।

देख कर इस 

"अप्रतिम सौदर्य" को    (अतुलनीय सुनदरता)

नेत्र "पावन" हो गए हैं। (धन्य या पवित्र हुए)

सच कहूं तो।

आगे क्रमशः पढ़ें

जय प्रकाश मिश्र





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