है कहां वह शून्य जो अंतरित होता हृदय में
है कहाँ वह स्वर्ण, जो अंतर बसा है कनक के।
दीखते हैं
रंग, आकृति,
लोलता बस
रूप की।
है कहाँ
वह स्वर्ण,
जो अंतर बसा है
कनक के।
दीखती है
लहर उठती,
गरजती यह श्रृंखला,
है कहाँ वह नीर
जो उर बिच बसा है,
भंवर के।
दीखती है
नीलिमा की
छत्र छाया,
आवरण नभ
का ये कैसा
छा रहा है।
है कहाँ
वह शून्य जो
अंतरित होता
हृदय में,
आकाश में
ब्रह्मांड में।
दीखता,
यह जगत
सुंदर,
रीझता है,
मन मेरा
उस गात पर।
वह शब्द भीतर
क्या छुपाए तैरता है,
मानस पटल में
शांत, इस परिवेश में।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: प्रथम स्टेंजा
असली कनक, स्वर्ण के बाहरी रूप में नही होता गहने की बनावट में नहीं, वह उसका अनूठा गुण है, वैसे ही मनुष्य की बाहरी आकृति, रूप, शालीनता, कलाकारी से बनाई या लोगों को दिखाई तो जा सकती है पर मनुष्यता के सद्गुण तो स्वभाव में, आचरण में ही मिलेंगे।
द्वितीय स्टेन्जा
आकार, सुरम्यता, बोली, पर मत लुभाइए, वास्तव में अंतस ही महत्व की वस्तु होती है। और यह उसमे प्रयुक्त पदार्थ पर निर्भर करता है, गुण पदार्थ पर निर्भर करते हैं आकृति या सौंदर्य स्थाई नहीं सदा परिवर्तनीय हैं, स्वभाव और संस्कार ही शेष बचते हैं। यथा लहरों का रूप अस्थाई है पानी ही यथार्थ है।
तृतीय स्टेंजा
अनंत शून्य अर्थात आकाश का रंग गाढ़ा नीला अत्यंत आकर्षक तो होता है, लेकिन हम अपने जीवन में इस अनंतता का जो भाग प्रयोजन में ले सकें वही हमारे लिए काम का है। अर्थात छोटे छोटे अच्छाइयां ही जीवन को सुंदर बनाती हैं, बहुत बड़े आदर्श मात्र आदर्श ही होते है। हृदय में लोगो के लिए कितनी जगह है, करुणा, सेवा आदि है, वह महत्व का है न की मात्र बड़ी डींगे भरना।
चतुर्थ स्टेंजा
एक ही संसार अलग लोगो को अलग दिखता है। हम अपने दृष्टिकोण से, अपने स्वार्थ से, काम के अनुसार दुनियां को महसूस करते है। जबकि सत्य स्वयं में हमारी अनुभूतियों से अलग होता है इसलिए हमारा मन, मानस हमे संसार की सत्यता से प्रायः दूर ही रखता है। हम अनेक आंतरिक प्रभावों, दवावो, कुंठाओं, पूर्वाग्रहों से अपने चारो ओर देखते हैं जबकि सत्य कुछ अलग ही होता है। अतः प्रतिक्रिया नहीं रिस्पांड करना चाहिए।
जय प्रकाश
Very beautiful poem as well as always
ReplyDeleteअपना प्रयास हमेशा यही होता है की अच्छी सार गर्भित और शीतल बयार सी कविता आप सभी को मिले।
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