मुक्तता की मोतियों का हार पहने, आनंद संग वह नृत्य करता, अन्तस में अपने।

अंतस में झरना! 

है कहां? 

आनंद झरता 

है जहां!

आनंद बाहर नहीं हर मनुष्य के अन्तस में भीतर ही होता है, आखिर हमारे भीतर वह जगह जहां इसका झरना है उसे ढूंढते हैं।

रिस रिस के रस 

वह कौन है ? 

जो सरसता है, 

निकलता है,

खुद ही पिघल कर, 

आत्म प्रेरित

आंसुओं के 

साथ मिलकर

बरसता है।

अनेक बार आनंद के साथ आन्नदाश्रु भी भाव विह्वलता स्थिति में अंगो से सरसने या रिसने लगता है। सुधी जन भी, भक्त जन भी, सामान्य लोग भी आनंदातिरेक की भाव दशा में प्लवित, द्रवित हो आंसू बहाने लगते हैं। उस रस विशेष आनंदरस को देखते हैं की कहां से निकल कहां समसता है और हम विगलित हो आंसू टपकाने लगते हैं।


हां, वही रस 

अंतस में भर, जब

आंतरिक रस सिक्त होकर,

फूट, बहता, 

भावना को भेदता

संवेदना को पार कर, कर।

आनंद रस आत्म वेदना, अपनी निरा संवेदना का रस है जो भाव दशा का अतिक्रमण या लांघ कर भावनाओं को वेध देने से कपड़े सा गारने से चू जाता है। फिर भीतर का घट और पट भर कर और भींग कर जब इसे नहीं संभाल पाते तो यही आंखों से निकलने लगता है।

अनुभूति की 

उन क्यारियों में,

भावना उद्दीप्त होकर,

फूट कर एक धार पतली 

बह निकलती, 

टपक जाती

कोमल हृदय के 

तंतुओं पर।

'आनंद के वस्तु या स्थिति' के उपस्थिति होने पर भाव दशा में प्रवेश मिल जाता है। तब आत्मसंवेदना अनुभूति की गहराइयों में भीतर उतरती जाती है। अनुभूति की क्यारियों में रसरंजना कल्पना के तंतु पर पूर्व से ही लदी रहती है। जैसे ही अनुभूति गाढ़ी होती भीतर पहुंचती है आनंदरस उनमें से स्रावित होने लगता है। और हृदय के कोमल उर-रेशों को स्पर्श कर जाता है फिर तो इस रस की झड़ी लग जाती है, आत्म विस्मृति छा जाती है और यह रसटपकन अनुभूति में आ आ नेत्रों से आनंद धार बन बहने लगती है। 

आनंद की अनुभूति 

तब हम सहज पाते 

मिलन की, उन तृप्ति सी 

नावों पे चढ़कर।

यह अभिभूत कर देता हमें!

यह मजबूर कर देता हमें!

आनंद अंतर्वस्तु है

रस स्नात कर देता हमें!

आनंद की स्थिति सामान्यतः किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष, या भाव विशेष के सम्मिलन से पैदा होती है। इस मिलन से भीतर एक गहरी संतुष्टि पैदा होती है। यह  गहरी संतुष्टि भावदशा को जागृत कर देती है और मन अभिभूत हो तरल हो जाता है, मन का समाप्त होना इच्छा विहीन होना और आनंद उपजना एक ही होता है जिसके परिणामतः आनंद उसके साथ ही बहने लगता है। यह हमे अंतर में अनुभव होता है अतः हम इसमें नहा उठते हैं।

आनंद रस है! 

स्रवित होता 

संगमों पर!

उर उमंगते 

जब हैं मिलते

प्लवित होकर।

आनंद जब दो दिल पूर्ण स्वच्छता से एक दूसरे के लिए समर्पित होकर मिलते हैं, एक दूसरे के साथ तैरने से लगते हैं, ततः उनमें उमंग पैदा हो जाती है वहीं भाव दशा के पैदा होने से आनंद पैदा हो जाता है।

गति पकड़ते,

बहते बहते 

एक संग

एक दूसरे की 

राह तकते।

बिछुड कर फिर फिर

हैं मिलते,

काल के संग

खेल करते।

आनंद की एक दशा बिछुड़ कर पुनः मिलने से काल की अंतर्भूमि पर भी पैदा होती है। यह इंतजार और कल्पना की भूमि पर भी उसके अतिरेक की दशा में पैदा हो सकता है।

आनंद मन का मैल है,

जब है निकलता विषय से,

वारूणी का संग पाकर 

तैरता तरूणी नवेली बैठ कर

यह!

मजधार की मौजों के ऊपर

मस्त होकर, झूमता है,

बस कुछी क्षण।

विवश होकर 

आदतों से,

मुंह छुपाए लौटता है,

हारकर, 

फिर उसी घर।

है जहां सुख शांति स्थिर,

जय पराजय छोड़कर।

आनंद विषयों में भी मिलता है पर क्षणिक और प्रायश्चित भरा होता है। वारुणी या मद्य में भी इसका अंश तो होता है पर पश्चात दुख भी मिलता है। नई चीजों, प्राणियों, प्रिय लोगो में भी होता है। पर इस आनंद रूप में राग छुपा रहता है और राग का अंत दुख, पश्चाताप, आत्मग्लानि ही होता है। अतः विषय के आनंद से दूरी श्रेयस्कर है। विषयों से आनंद लेने वाला एक दिन उस आनंद से निश्चय ही ऊब जाता है और अपनी स्थाई जगह परिवार, कुल, मूल जगह आता ही है। अपनी मर्यादा भी उसे भूलनी पड़ती है।

आनंद अद्भुत वस्तु है,

योग से यह उपजती।

संतुष्टि को भी पार कर 

संयम के संग है चमकती।

छोड़ अपना जगत परिचय

गलित कर सर्वस्व अपना,

मलिनता का आवरण तज 

चमकता बन चंद्रमा।

चिरआनंद अद्भुत चीज है यह उत्तम योग से अच्छी आदतों, गुणों, लोगों, योग क्रिया संबंधों और संयमों से प्राप्त होता है। अहम या अहंकार का त्याग, स्व का समर्पण, भौतिकता से दूरी, मलिन कर्मों और संबंधों का त्याग कर चिर स्थाई आनंद को पाया जा सकता है। और चांद सा शीतल, सौंदर्यवान, प्रिय भी बना जा सहता है।

एक हो उस असत सत में,

उछलते उस शांत रस में।

एकरस एकसार होकर

लहर बन स्पंद लेता,

बन महासागर 

हरेक क्षण

मस्त होकर झूमता।

एक साधक अपनी अनन्तता में वैश्विक चेतना के महासागर में मिलकर एक होकर अपनी पहचान से दूर समष्टि धारण कर सदा आनंद सागर में अवस्थित रहता है। सर्वत्र, सर्व काल, आनंदित रहता है।

मुक्त हो हर चाहना से,

मुक्त हो हर भावना से,

मुक्तता की मोतियों का 

हार पहने,

आनंद संग वह नृत्य करता 

अन्तस में अपने।

आनंद का सच्चा पात्र, इच्छाओं से मुक्त, चाह से मुक्त, भावना, विचार के द्वंदों से मुक्त और हर संबंधों की सत्यता जान उनकी रागात्मक स्थितियों से मुक्त होता है। और अपने आंतरिक उद्भूत आनंद के साथ तरंगित, ऊर्जित,  चिर आनंदित रहता है।

जय प्रकाश मिश्र 

Comments

  1. मैं समझ नहीं पा रहा हूं आपका आशय, कृपया स्पष्ट लिखें।

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