रस बरसते, तृप्त होते, लोग देखे

पूछता हूं, 

सोचता हूं, 

जब अकेला 

बैठता हूं,

जाने न 

कितनी बार

इस प्रश्न में 

मैं उलझता हूं।


कुछ प्रश्न हैं मेरे

"कहां आलंब है

जीवन के पटल का ?"

उठता हुआ.....

यह समय का पट...

या

भागता... इंसान का पद।


किस घड़ी 

ये हो बराबर

रुक.....हैं, जाते

ठिठक... जाते, 

बढ़... न पाते।

कौन.. सीमा बांधती है ! 

भागने से रोकती है।

क्या ऊंचाई यहीं तक थी!

क्या शक्ति का अवसान, था यह!

है कहां आलम्ब इसका पूछता हूं।


लो, झुक गया, आलंब से यह

हो गया

अवनत, 

शिखर से।

काश! उसपर 

रुक ये पाता।

एक क्षण विश्राम पाता।

भागता ही रह गया यह,

पहुंचते ही ढल गया यह।

सोचता हूं बैठ कर 'मैं'

फिर 

बैठकर 'मैं' मुस्कुराता।

था कहां आलंब इसका ढूंढ पाता।


कैसा शिखर है,

अद्भुत इतर है,

दोनो ढलाने एक संग....

एक आ... रही, एक जा.. रही, 

कोई इस तरफ, कोई उस तरफ।

बीच में आलंब है यह

एक क्षण का खेल है सब

देख लो दोनों तरफ 

एक साथ सब,  एक बार बस

चलते बनो, 

उस पार अब, 

क्या था यही 

आलंब इसका सोचता हूं।


मैं……

देखते ही डर गया !

थोड़ा डगमगाया ! उतर गया।

कितना कठिन है !

खड़े रहना, ही यहां पर।

काल के अवसान संग 

उद्भव यहां पर।


लोग पीछे चढ़ रहे हैं

दबाव में सब जी रहे हैं।

लग रहा है, 

उतर रहे हैं।

देख पाता, देख पाता!

और कुछ क्षण देख पाता!

ये नजारा जी मैं पाता।


कैसा नशा था, 

सब लापता था,

आगे निकल जाने की जिद में 

मैं कहां था ? 

ना.... पता... था, ना पता था,

सच कहूं तो,

लापता था।

रास्ता बन कर, 

मैं लेटा मंजिलों के द्वार पर,

कैसे पड़ा था, क्या बताऊं,

जिंदगी को छोड़ भागा

जिंदगी के द्वार पर।


सच सुनो तो, फिर कहूं मैं, 

जिंदगी को छोड़ कर मैं 

बंदगी की ओर भागा।

और वह बनकर हिरन,

दौड़ती बन कर पवन,

दूर रेगिस्तान में, 

तपते हुए मैदान में।

ले गई, क्या क्या कहूं मैं

किन किन गली कूचान में।

जब हुआ मुझे होश देखा

उम्र की ढलान है, 

आगे खड़े तूफान हैं।

रुक गया, 

अनुभव किया,

मेरे सामने, 

"मैं.".. लुट... गया।


बन सयाना घूमता था,

क्रम बंधा, कुछ इस तरह था,

एक ऊपर, इक लदा था।

भागता ही, रह गया हा! 

आंकता ही, रह गया हा!

कौन कहता है,

खुद का पता,

मुझको पता था। 


कोई कहां विश्राम पाया।

सोचता ही तो खड़ा हूं, 

मील का पत्थर हुआ हूं।

सब गुजरते जा रहे है,

मन ही मन मुसका रहे है।

वक्त के पीछे खड़ा मैं

आज खुद को पा रहा हूं।

जो चुना था कर न पाया

एक दीपक धर न पाया।

आज भी सुनसान है वह

खुद जहां से मैं था आया।

मारकर उस अधमरे को 

खाल लेकर भाग आया।

ओढ़ कर उस खाल को

मैं आस संग शहरा समाया।

मूक खुद को देखकर हूं,

हो अचंभित सोचता हूं,

नियति के इस खेल में 

फंस कहां मैं खेलता हूं।


तूं ही बता, मेरे खुदाया, आज मुझको।

क्या रहा परिणाम! 

क्या, लौटाऊं, मैं तुझको।

काश थोड़ा थम गया होता कहीं,

"उस जिंदगी" की खोज में जाता नहीं।

उस झील के तटनीर की 

बहती चमक पर,

शांत निर्मल झील के आगोश में

छुप देखता मैं धुंध सारी जिंदगी की 

कालिमा इस काल के तपते हृदय की 

खोजता,

है कहां अन्तस के धागों में बुनी

दुनियां वो मेरी, 

दूधिया हंसी बच्चे की जैसी,

खिलखिलाती लहलहाती 

सावनी फुहार जैसी। 

सच के चादर में लिपटती

प्यार के आंगन में सिमटी

पर कहां कुछ थिर यहां है,

बदलना हर पल यहां है।

बैठकर चुपचाप, 

अंदर झांकता हूं, 

देखता हूं,

मैं वही हूं जो चला था वर्षों पीछे

खाल ओढ़े पर अकेले,

कुछ नहीं बदला अभी तक

मैं वही हूं, मैं वहीं हूं।

चक्र चलता जा रहा है,

प्रकृति के हर भाग में ही

"पर मृदा बन बन अधर मृदु

झर रही, बन बन, मृदा ही।"

रस बरसते, तृप्त होते, लोग देखे

कर्म वीरों के सकल निःशेष देखे।

जय प्रकाश





भावार्थ : कल देखें।


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