नजर आतीं जब सुनहरी पत्तियां इस पेड़ की,
1.
नजर आतीं
जब
सुनहरी पत्तियां
इस
पेड़ की,
शंकु…., सा
आकार इसका
घूमता है
जेहन में।
2.
घूम आता हूं
पुराने पल जो
गुजरे थे कभी।
एक छाया गुम
हुई थी बादलों में।
3.
मैं न जानूं, कौन से
पनघट गई वो।
या खड़ी है
आज भी
उस भोर में।
4.
पांव सा लंबा
तना लेकर
खड़ी वो
देखती है,
चुप अकेली
पार्क में
हरिताभ
द्युति की
आड़ से।
5.
एक घेरा
कटि से नीचे
लटकता है,
सुरमई सा रंग लेकर,
चमकता है।
चूनटें….
इन पत्तियों की
कोर... पर,
झिलमिल…
फिसलती…
सरकतीं… हैं
बाल मन
मेले में जैसे
भरमता है।
6.
रंग फुनगी का बताऊं
हाय! कैसा
काषाय मिल कौशेय से
कुछ कह रहा था।
7.
अंग हैं सुकुमार
कितने
शीर्ष पर
“उर बंध” से है
“लर” बंधी कोई
नवेली।
8.
कोमल, तरल,
तैलीय, रस
है
बह रहा,
लालिमा ले
“फूल-कदली”
पुष्प बन,
अनुराग की।
9.
रंग
गुलाबी,
संग
मिल कुछ
जामुनी
हो
इस तरह है
आज वे मुझे
दीखतीं।
या
धानी, सुनहरी गिलहरी
इस पेड़ पर चढ़
खेलती हो
आज जैसे
कुलबुली
ऊपर से नीचे।
10.
तैलीय पृष्ठों पर चमकती
सूर्य की आभा है
झिलमिल
सुनहरी लट
गांठ से बंध
खुल गई हो
सच में जैसे।
11.
पत्तियों की
कोंपलें
झुर झुर झुरकतीं
बिहंसती हैं।
हृदय जैसे
कांपता है
उस लली का,
हाथ में वरमाल
लेकर जो खड़ी हो
सामने चिर कामना
के रूप के।
12.
सिंदूर के रंग में रंगी
ये अरुण किरणे,
खेलती हैं खेल
जब इन पत्तियों
संग प्रात में।
झिलमिल झरोखा
बंद होता,
फिर है
खुलता,
उन हवाओं
संग
जो हैं,
लिपट जाती
उंगलियों से
गुदगुदाती
पार्श्व में भर अंक
इनके मुस्कुरातीं।
इस पेड़ की पत्तियों
भीगी हुई।
हा! ओस में
भीगी हुई सी,
तन बदन से चुस्त,
लज्जित
कुछ झुकी सी।
सच कहूं तो
आंसू ढरक कर
जम गए हों,
मुख, किसी
नवजात के।
13
मन मसोसे
हो खडी
लड़की कोई
थोड़ी देर से,
चुपचाप,
अपने आप
हल्का मुस्कुरा दे,
कुछ अचानक
“अधर पर ही” सोचती सी।
14.
ऐसे ही हिलती,
पत्तियां हैं,
अनमने कुछ
भाव लेकर
डाल अपने।
हवा के संग
फुरफुराती,
झुरझुराती
कनखियों
थोड़ी लजाती,
बांधती है मन
को मेरे बाजुओं में
स्निग्ध अपने। क्रमशः आगे
जय प्रकाश
1. कोई कोई पेड़ भी अपनी आकृति विशेष पत्तों की मुलामियत, सुंदर रंग, चटकीले स्वच्छ हरी पत्तियों के चलते यादों के अंतस को मथ देते हैं। स्मृतियों को आधार पृष्ठ मिल जाता है। व्यक्ति पुराने जीवन के सुहाने सफर पर अनायास ही निकल पड़ता है।
2. स्मृतियों का भावुक सागर अपने फेन से छाया चित्र बनाने लगता है। जैसे बादलों में भागते बनते बिगड़ते मन के चित्र।
3. काल चक्र के पहिए नीचे दबी जुगुप्साए फन उठाने लगती हैं। जिज्ञासा के पुल पर अंदाज के साए उड़ते नजर आते हैं।
4. मन के भीतर दबे पुराने किस्से अपने दड़बों से बाहर निकलने लगते हैं। पार्क में खड़े सुंदर हरियाली के बीच कोई अपना दौड़ कर आने सा लगता है। कोई कुंजों से फूलों के बीच झांकता सा लगता है।
5. सुंदर अशोक के शंकवाकार सुनहले धानी पत्ते हिलहिल कर तरह तरह के अनुभूति कराते हैं। बच्चों के निर्मल चंचल मन सा हम भी अनुभव करते हैं।
6. काषाय संयासियो का रंग विराग का रंग, कौशेय राजाओं का सिल्क सा पीला रंग होता है। अतः सत् और रज आपस में मिले हुए हों कुछ ऐसा। रंग और भाव।
7. टहनियों के आगे पत्तियों के बीच बिल्कुल सॉफ्ट, न्यू से नवीन, मृदुल, लर अर्थात जीवंत रेशा, उर बंध मतलब संवेद्य, अनुभूति संपन्न, अत्यंत कोमल को इंगित है।
8. कदली या केले का फूल रक्तिम लालिमा के साथ कांतर ताम्र सा द्युतिमान, नर्म मुलायम की सीमा जो तरलता का सामिप्य ले लेती है, अनुराग सी प्रेम की अंधता के साथ का भाव है।
9. पत्तियों का सौंदर्य ऐसा है जैसे रंगीली गिलहरियां जल्दी जल्दी इधर उधर भाग रही हों, ऐसे क्रमवार वे हिल डुल रही हैं।
10. टहनियों पर लटकती सुंदर नव पल्लव सुंदर सपनिली सुवर्ण वर्ण की खूब भरी भरी लंबी खुल गई चोटी बालों सी कर्ली लुक लिए भा रही हैं।
11.पत्तियों के फलक ऐसे लय ताल में नृत्य से करते हैं जैसे वर वरन के लिए वर माला लिए कोई अभिलाष भरी तरूणी का हृदय कम्पायमान रहता है।
12. ओस से भीगी पत्तियां ऐसा लगता है लजाकर सिकुड़ी हुई है। शिशु के मुंह पर आंसुओं की स्वच्छ धार सी लगती हैं।
13. कोई कोई पट्टी शांत, लजीली, इनोसेंट लगती है। तभी अचानक पवन के झोके उसे हिलाते है और वह हंसने लगती है।
14. यह निसर्ग सौंदर्य अपनी बांहों में हमारी बुद्धि, विवेक को समा लेती है।हम मुग्ध खड़े रह जाते हैं।
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