ये जिंदगी पानी सी बह जाती है।
ख्वाब ही है
ये दुनियां-ए-जिंदगी
ए..क दिन
बिखर.. जाती है,
संभालो
कितना भी इसे,
देखो ना,
पा..नी सी
बह.. जाती है।
लगे रहे…
सालों साल
हो के…
पसीना-ए-पसीना
पीछे जिसके,
वो मिलते
ही,
हाथों से
बन रेत
निकल जाती है।
सफर-ए-जिंदगी....,
क्या मिला
“सिला”
कोई……“बात” नहीं।
रास्ता….
अच्छा कटा
ये भी तो
कोई
कम बात नहीं!
जो कुछ भी
होना था,
सब....
उत्सव से हुआ...,
क्या... कम था?
बहुत बड़ी
उम्मीद
से रहना
तो कोई बात नहीं।
रिश्ते नाते,
भाई चारे
सब होते तो हैं,
पर,
उम्र-ए-सेहत
बीच में
आ जाए
कोई
अख्तियार
नहीं।
दिल जिंदा है !
तो 'वो'
जिंदा है,
जिंदगी
चल तो रही,
फिर क्यों वो
शर्मिंदा है ?
गमगीन....
क्यों है,
"वो"....
क्योंकि, अभी
उसका
"वो" जिंदा है।
घेर दो,
बाडे लगा दो,
जहां तक
सोचते हो तुम,
या लगा लो…
सीनों से…
छुपा लो बाहों में
दिल में भी भर लो
तुम उसे,
कुछ भी करो,
बिछुरना
होता ही है
सभी को, यहां से
फिर भी, किसी न किसी,
दिन, इस जन्नते मदीना से।
अख्तियार उम्र पर
किसी का भी नहीं,
बहती हवा, ही है, ये
आखिर तो, गुजर जानी है।
कितना भी कर ले कोई
कभी मुट्ठियों में नहीं आनी है।
जय प्रकाश मिश्र
आपको सोचने के लिए चार लाइने
वो रेत की दीवार होगी,
पानी में बह गई होगी।
वर्ना, क्या ऐसे, जड़ से
नामोनिशॉ मिटा करते हैं।
जय प्रकाश मिश्र
सोचने के लिए प्रेषित लाइने उत्तम एवं सारगर्भित हैं
ReplyDeleteयही हम भी चाहते है की आप सभी को सोचने का स्पेस मिले। और हमारी सोच आपको केवल प्रकाश और जगह दे।
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