मृत्यु क्या है, दुंदुभी उस जीत का, जीत जाता है कोई अपराजिता,
मृत्यु क्या है ?
विवशता का छोर
अंतिम!
या
लटकती
लता कोई
सांस की,
बस टूटती सी।
अंत है संघर्ष का
संपूर्ण ही यह,
या पट लिपटता
सृष्टि के परिधान का।
क्या? अंतिम
समर्पण मृत्यु है !
अन्याय को!
अनैक्षिक, थोपी गई
इस व्यवस्था का
सदा से!
या
शक्ति तांडव
नग्न है,
यह ध्वंस है
उस-भ्र्न्श का !
मृत्यु होगी
रास्ता
अंधे तिमिर का,
अपरवश-ता बीच,
जिसमें,
चुक, चुके हों
विकल्प सारे
खत्म
होकर!
शिथिल होकर,
गात से बेहाल,
होकर।
या मृत्यु होगी
आर्तता के
द्वार पर,
पुकार
अंतिम!
आत्मा की।
या दुंदुभी उस
जीत का
जो जीत जाता
है कोई अपराजिता।
क्षण वही
होगा
जहां
निष्क्रिय समर्पण
देह का
कर,
शीघ्र आओ
मृत्यु को
अंतिम समय
पुचकारता वह
विलय होता।
खुली पलकों
बीच ही अंतिम
सजर में।
मृत्यु होगी
एक दिया
बुझता हुआ,
संघर्ष रत चहुं ओर
के बागी पवन से।
जूझता निज
स्नेह, बाती
की कमी से,
लपलपाता,
खोजता, घिरते
अंधेरे बीच
कोई एक संबल।
भाग्य की ही
आस लेकर
हाय! अपनी
घट रही, सीमित
पहुंच तक।
छटपटाता, स्वर नहीं
चित्कार करता,
अंत से संघर्ष
का घरघराता
नाद लेकर।
मृत्यु क्या है,
जय पराजय
प्राण संग उस सृष्टि का,
जिसमे जिया वह,
जन्म भर निर्विघ्न रह कर।
शून्य होकर इंद्रियां
निज धाम में
वापस
सिमटती
शीघ्रता से
सुप्त होती,
एक क्षण वह
बीच का अवधान
के अवसान का।
मृत्यु क्या,
कोई मुक्ति है!
या है नया परिधान धारण
आत्मा का।
यह उत्स है!
उस जीर्णता के राज्य
को चैलेंज करता,
जो घेर कर तुमको नहीं
था छोड़ता।
मृत्यु… मीठी भी है होती
पीठ पर अपने है… ढोती
जिंदगी.. भर जिंदगी.. को।
मृत्यु
तो,
‘मृत्यु' की
ही ,
है होती,
जो नहीं अब
ढो है सकती
जिंदगी को।
जिंदगी का एक टुकड़ा मृत्यु भी है।
फिर वहीं से तो निकलती जिंदगी है।
Jai prakash mishra
Comments
Post a Comment