बताओ न! सच क्या है? जो दिखता… है ?
एक आवाज.. सुनता था, मैं बड़ी.. दूर… से, आती थी वो…। खुद में खाली, हो जाता था, मैं कुछ ऐ..सा कर, जाती थी वो…। शब्द कोई भी नहीं..., उसमे थे., समझता!.मैं क्या? कहूं, कैसे उसे? कोशिशे.... भरपूर, कुछ कहने.. की तो, थी जरूर… लेकिन….जो जैसे बन पड़ता वैसे बोलती थी वो। भाषा और शब्द वो.. क्या... जाने.., संबंध! अभी नहीं! वो कहां पहचाने…। उच्चारण! बहुत दूर, अभी है उससे…, संकेतों को थोड़ा, बहुत ही पहचाने…। हां वो सच्चे दिल से, अचानक कुछ कह.. उठता था, यार! सच... कहूं..., मेरी क्यारी में फूल.. खिल उठता था, मेरा तो सूरज.. तभी, निकलता.. था। क्या.. बुलावा था… कह.. नहीं सकता…, क्या अपनापा था. कोई समझ नहीं सकता। सच्चाई की आवाज एक छोटे बच्चे की आवाज होती है। यही आवाज एक निरीह, त्रस्त, दुखी की भी हो सकती है जो हर तरह निरूपाय हो। इन आवाजों में एक अजीब पुकार, संबोधन, प्यार स्नेह, अपनत्व घुला होता है, जिन अंतर्भावना से ये निकलती है वह इनमे स्रवित होता है। मन को मथ देने की शक्ति होती है इनमे। बताओ न! सच क्या है? जो दिखता… है ? या होता है कहीं...