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Showing posts from May, 2024

बताओ न! सच क्या है? जो दिखता… है ?

एक आवाज.. सुनता था, मैं बड़ी.. दूर… से, आती थी वो…। खुद में खाली, हो जाता था, मैं कुछ ऐ..सा कर, जाती थी वो…। शब्द कोई भी नहीं..., उसमे थे., समझता!.मैं क्या? कहूं, कैसे उसे? कोशिशे.... भरपूर,  कुछ कहने.. की तो, थी जरूर…   लेकिन….जो जैसे  बन पड़ता  वैसे बोलती थी वो। भाषा और शब्द वो.. क्या... जाने.., संबंध! अभी नहीं! वो कहां पहचाने…। उच्चारण! बहुत दूर, अभी है उससे…, संकेतों को थोड़ा, बहुत  ही पहचाने…। हां वो सच्चे दिल से, अचानक कुछ  कह.. उठता था, यार! सच... कहूं..., मेरी क्यारी में फूल.. खिल उठता था, मेरा तो सूरज.. तभी, निकलता.. था। क्या.. बुलावा था…  कह.. नहीं सकता…, क्या अपनापा था.  कोई समझ नहीं सकता। सच्चाई की आवाज एक छोटे बच्चे की आवाज होती है। यही आवाज एक निरीह, त्रस्त, दुखी की भी हो सकती है जो हर तरह निरूपाय हो। इन आवाजों में एक अजीब पुकार, संबोधन, प्यार स्नेह, अपनत्व घुला होता है, जिन अंतर्भावना से ये निकलती है वह इनमे स्रवित  होता है। मन को मथ देने की शक्ति होती है इनमे। बताओ न!  सच क्या है?  जो दिखता… है ? या होता है कहीं...

जन्म पीछे जन्म है, मृत्यु पीछे मृत्यु देखो।

   स्वीकृत व्यवस्थाओं और मान्यताओं के अतिरिक्त और विरुद्ध भी भाव विचार व्यक्ति,व्यक्ति में,अलग पृष्ठभूमि लेकर उठते रहते हैं। विद्रोह,प्रतिवाद और तर्क मनुष्य में रहता ही है। उनका एक चित्रण अंतरभावो के साथ रखा गया है। कुछ सामान्य सामयिक आंतरिक कारकों को भी समेटने की कोशिश की गई है जैसे शांति, चेतना आदि। आप पढ़े और विचार छाया में विश्राम पाएं यही लक्ष्य है। उसने कहा  मैं चेतना हूं मुक्त सारी  मुश्किलों से, मैने कहा तूं  वासना है सुप्त सारी  इंद्रियों में। उसने कहा  मैं सर्वव्यापी सर्वमय  शाश्वत सदा हूं, व्याप्त हूं, संव्याप्त हूं सारे जगत में एक सा। मैने कहा तूं  प्यास... है, इन इंद्रियों की.. अभिशप्त है.... इन इंद्रियों के साथ... से। उसने कहा  ‘अज्ञेय हूं मैं’, “जो” देखता है, देखता “जो” है वही मैं चेतना हूं।      (दृष्टा और दृश्य दोनो मैं हूं) मैंने कहा  तूं अहम है, तूं स्वार्थ है,  अवतार है  हर वेदना का। उसने कहा  महसूस करना, चाहते हो? अभी, क्या तुम! कौन हूं, “मैं” ! तो बैठ जा,  कर ‘बंद’,  आंख...

पास आई, बैठी, बोलीं, तो कुछ नहीं

जिंदगी मंजिल है कोई हां! वो कोई  मृगमरीचिका नहीं,  "मंजिलें" ही  थी मेरी…..! रास्ता बनती गई…  अहसास बन ढलते हुए कदमों तले मेरे,  क्षितिज सी चलती रहीं। पहुंच जाऊंगा,  पा जाऊंगा! दौड़ता रहा, शीत, घाम, वर्षा से बेखबर, कड़कते बादलों,  कड़कती ठंड के बीच दायित्वों को भी,  अनदेखा करता जिंदगी से बेखबर। भागता ही रहा, जिंदगी भर। पर क्षितिज हो, या इच्छाओं की मंजिलें, दूर होती ही जाती हैं,  पास और पास  जितना जाओ इनके। इसी लिए दूर रहो  ज्यादा पास मत आओ इनके। सोचता हूं कभी इन सारी मंजिलों से बेपरवाह क्या मस्त जिंदगी थी। जो कुछ घर गांव में मिलता उसी के साथ, कितने अच्छे से यह पली थी। ये वही मंजिलें हैं, जो कभी नीचे पड़ी थी… कदमों में; मुझे दिखती ही नहीं थीं। एक दिन अचानक उठ कर  कहने लगीं, ले चल मुझे किसी ओर तूं, मैं ही दुनियां हूं, तेरी। मंजिल बन, तुझे सरपट दौड़ाऊंगी,  अपने साथ तुझे जीवन के  सारे मजे चखावाऊंगी।  लेकर चला जिस पल उसे ‘कुछ दूर पर’ दिखने लगी। देखते ही देखते मैं हुआ पीछे!और मेरी मंजिल मेरे आगे, मुझे, ‘लेकर चलने...

इंतजार के सीमांत की “धड़कन और आशा”

मैने सुना है अपने कानों, “सच” नन्हीं बच्ची के पैरों में बंधी पायल की धीमी झनक, और चिड़िया की  नन्ही बेटी की  मीठी बोली  की खनक,  में अंतर नहीं  होता कहने को, दोनों स्वर ही हैं। कानों के लिए, पर  किसको ज्यादा तरजीह.... दूं !  सोचता रह जाता हूं,  निर्णय नहीं कर पाता हूं। पर महसूस करता हूं, ‘एक बात’,  नन्हीं चिड़िया की मीठी झुनक... में  पुकार.... है,  उसकी मां के लिए... बार बार.. जो मेरे कानो में बज उठती है।  ध्यान से सुनता हूं उसे, उसमे इंतजार के सीमांत की  “धड़कन और आशा” घुली रहती है। मां अब आ... जाओ, निरीहता ही नहीं, घोंसले के अकेलेपन... से उसकी ऊब, दिल से जुड़  बाहर निकलती है,  वह चीं.. शब्द दुनियां के  शब्द कोष का हिस्सा तो नहीं पर  सबसे शक्तिशाली शब्द से कमतर  भी नहीं, कितना कुछ.कह.वह  नन्ही चिड़िया की बेटी.. बिना भाषा और शब्द ज्ञान के अनगढ़ स्वर में बोल.. देती है। जब की मेरी नन्ही पोती के पैरों की पायल, चांदी  के घुघूंरुओं से बनी.. जब बजती है, केवल एक आनंद का झोंका बहा देती है। मेरे अ...

आशा की तरह जलेगा, कुछ फर्क तो पड़ेगा।

शाम तो मेरी थी  भीतर अपने फैली, फिर बाहर अंधेरा  क्यों इतना फैला। मन में आया  एक दीप जला दूं,  रख दूं। किसी घर के  दीवट पर  हमेशा की तरह। आशा की तरह  जलेगा,  कुछ फर्क तो पड़ेगा। कोई दूर से देखेगा तो सोचेगा, लगता है, कोई रहता है  इस घर में  अभी। आखिर जीवन भी प्रकाश  की तरह, ही तो चमकता है । अपने में ज्ञान ज्योति भरकर ही तो दमकता है।  खोजता हूं दीवट,  आज की दीवारों पर, अब कहां प्रचलन रहा  संझरौती का मकानों पर। कोई दीप, दिया, लालटेन रखे  चौखट पर यहां कहां! बदल गए हैं लोग, बदल गया  है उनका सारा जहां।  मैं सोचने लगा। हां हां, मैं वही सजावट-दार चौखट ही  खोज रहा था, जो घर के मुख्य दरवाजे के नीचे लकड़ी  का ऊंचा हिस्सा होता था,  जो रोक देता था, सारी बलाय, दुरिता अपने बल से। केवल सद्बुद्धि और लक्ष्मी ही जा सकते थे  उसके ऊपर से । जिस चौखट की जीवन भर  लाज रखने की बातें होती थीं, मां, दादी, भाभी,  और बहुओं में  जिसके सम्मान  की बातें होती थीं। गायब था,  मेरी ही  "चुर...

जिंदगी को एक धार पे बहने दो, बस इतना ही छुओ

दहलीज जिंदगी की, कुछ अर्ज कर रही कहने की कोई चीज नहीं खुद निकल रही। मुझे छोड़ दो, मेरे हाल पर, बस इतना करो। मैं खुश हूं, तेरे इंतजाम 1 पर, मुझे देखने दो। सजदा 2 करो, कहीं..., किसी और का..., मुझे “बैठने तो” दो....। गर तुम ये कर सको, तो करो,  कुछ.., मुझसे,  अलग.. करो। मैं खुश हूं...,  अपनी जिंदगी से.. मिल के,  बस अब..., तुम, न... मिलो। बेचारगी 3 के ये दिन  अजीज 4 हैं ‘सच'  मेरे लिए "बहुत"। तुम इतना ही करो अब...  की मुझसे  थोड़ा.. दूर ही रहो। जो... तुम रह भी सको..,  अपने सपनों की  दुनियां में रहो..। सपनो की यह  मखमली दुनिया तेरी है.. एहतराम-ए-आराम 5 से रहो। जीऊंगा कब तलक मैं, ये सोचता हूं, आंख ही तो है, कभी खुले ना खुले। उड़ जाएगी महक,  उस दिन;  सपनों के फूलों सी, रह जाएंगी  बस कहीं एक याद  पुरानी धुंधली सी। शायद बचें कहीं  सिमटते हुए  कसक 6 में सने, कुछ यादों के पल। फिर भी गुजारिश 7  है  कभी शर्मिंदा 8 ! न होना, न करना! चाहे कैसा भी आए, तुम्हारा कल। इसी लिए कहता हूं  “जिंदगी को एक धार ...

ये दुनियां है, अपनी रफ्तार में, चलती है ये

तुम बन गए, सबसे, सुंदर, फूल बन कर, खिल गए, कुछ निगाहे छुअन  'उसकी' थी ही ऐसी..। रंग फूलों में  ‘गुलाबी’ उतर आया,  'थी, होठो की रंगत,' ही ऐसी। “पर” होते हुए भी,    पक्षी, न, उड़ा थी दीदार की       लगन ऐसी। महक गई  तबियत उनकी, कुछ ऐसी तरबियत थी उसकी। असली गुलाब सुर्ख हुआ कागजी ने आग पकड़ी, उसकी निगाह ऊपर उठी तभी तो, ये  सहर हुई।  कहने को, तो  वो, है,  मदीना, रब का;  फिर भी जालिम! पाते हैं, सभी, ‘केवल किस्मत अपनी।’ हां, ये वही दुनियां है,  उसी दुनियां से,  आए हैं लोग, मुझे छोड़,  कुछ और भी होंगे, बाकी खैरात  बटोरने की ही,  तो भीड़, है, लगी। ये दुनियां है रे!  अपनी रफ्तार में, चलती है ये किसी की कब कहां सुनती है ये, तूं इसे देख ना देख, कब किसी की परवाह करती है ये। कठिन शब्द : निगाहे छुअन...देखने का अंदाज सुर्ख...लाल, सहर हुई... प्रातः काल की शुरुआत हुई, पर...पंख, दीदार...देखने की चाहत, लगन...दिवानगी, तरबियत... संपूर्णता में अच्छाई, मदीना... धार्मिक स्थल कामनाओं के पूर्ण होने की उम्मीद की...

दुष्ट दलन.करती है आई, सचमुच.की यह देवी है।

नारी के लिए सुना था वह कुछ ऐसे था,  लिपि बद्ध करता हूं। इस. सुंदरता… की देवी.. को  तुम देख भ्रमित मत हो रे मन!  इसकी.. हर क्रीड़ा…. के नीचे.. संसार.. छुपा है…. पीड़ा.. का। पर जब देखा  और पाया तो, वह सुख सरिता बन बहती है इस जीवन की.. मरु भूमि में, शीतल वाणी.. शीतल तन मन शीतल.. उसकी.है हर चितवन। मूक देखती.. रहती.. तुझको  अपलक नयन बांधते हैं मन,  राग.. रज्जु बंध… जाता है तूं करता उसको प्रनत समर्पण। जीत, विजेता को  यह अबला, मन ही मन  मुसुकाती है,  क्या है तन बल  क्या है मन बल  इन सब, की ही  दुर्बलता में खुद भी तो  फंस जाती है।  एक निमंत्रण नयन बंद कर जब वह प्रस्तुत.... करती है यह जग प्रस्तुत.. हो जाता है जीवन सरिता बह.. उठती है। सुख शांति लिए आंचल में.. वह झलती रहती, निशि-दिन अविरल हर एक चिनगारी.... जीवन की बिनती रहती... जीवन भर यह  । झुक जाती है डाली सी वो जब पवन थपेड़े बनते तुम, तन जाती है.. तलवारों सी  जब बात पड़े कोई तुम पर । अमृत है यह विष प्याली में दीवार बहुत ही... पतली है, नाजुक हाथों से... छूना तुम बह स...

तुम समय हो, है यही सच, देख लो

जिंदगी की नाव पर बैठा हुआ.. मैं बह… रहा हूं काल…. के दुश्चक्र में, कौन है.. जो खींच कर.. ले जा रहा दुर्गम-भंवर के बीच आ..नजदीक से। क्या कहीं कोई,  मुझे जो जानता है, क्या कहीं  लिखा हुआ..मेरा पता है। क्या छुपा है, जिंदगी की आड़ में,  मेरे…  कहीं कुछ ? या मैं.. बहता…  यूं… ही…  अनर्गल…. जा… रहा हूं। क्या जरूरत विश्व को मेरी यहां थी! क्यों मुझे दुश्चक्र में... भेजा गया है? कौन हूं मैं? क्या यहां, मेरी... महत्ता,  खोजता हूं, सोचता हूं, कह रहा हूं आप से। देख कर इस, काल नद की धार को,  अनवरत बहते हुए इस  समय के व्यापार को, हैरान हूं! मैं देखकर, “चल रहा….किस भूमि पर”  यह, चक्र इसका सोचता हूं। “मैं ही खड़ा हूं,”  भूमि बन  “इस चक्र का ”  खुद देखता हूं! मैं ही नहीं,  हम सभी ही हैं भूमि इसके, चक्र जिस पर अनवरत यह  चल रहा है। क्या नहीं तुम देखते हो, जो जहां जिस हाल में है, समय को ले चल रहा है, समय उस पर चल रहा है। सोचता हूं, निज पुत्र को ले,  पौत्र को ले,  संग अपने रास्ता  इसका बनाता जा रहा हूं अनवरत मैं। एक के...

ताज़ी हवा लगेगी, भूलेगी उम्र गिनती,

तुम रहना इसी दुनियां में, कभी, कहीं, भी मिल जाना।  जब बोझ लगे दुनियां,  तुम मेरी गली आना। ये दुनिया का खिलौना, जब तुम्हे लगे बौना। आंखों में आए पानी गुनना मेरी कहानी।। क्या क्या समेटोगे तुम, जाने से अपने पहले। कुछ याद छोड़ जाओ दीवारें ...मत... कुरेदो।।   कुछ मेरी मान जाओ रहने दो थोड़ी चीजें।  खुद ही, ये सब, मिटेगा  कुछ वक्त दो, उसे, तुम।   देगा सुकूं तुम्हें यह जब जीत के ये दुनियां   थक हार कर खुदी में गुम होने तुम आओगे। कभी लौट के फिर आना, नजरें घुमाना इनमे अहसास वही होगा महसूस तुम कर लेना। जो कुछ जहां हुआ हो, सब अक्स है हो जाता।  पाकर हमें अकेला  चुपके से निकल आता। हम फिर यहीं मिलेंगे  यादों में जी उठेंगे, रेंगेगी मुस्कुराहट,  अरमान खिल उठेंगे। ताज़ी हवा लगेगी,  भूलेगी उम्र गिनती, हम तुम में घुल मिलेगे,  संग कोई भी हो हस्ती। जय प्रकाश मिश्र

मानवता को तार तार कर उसी को ओढ़ सोते हैं।

 मिट्टी का बर्तन एक बार मिट्टी के दो बर्तनों ने  साथ मिलकर, आनंद और उन्माद के क्षणों में   खोकर, घुल मिल,  सारी सीमाएं पार कर लीं, उन्हें लगा जिंदगी ने सारी,  सौगात, पा ली। कुछ दिनों बाद जब  मुड़कर पीछे देखा था,  समय बच्चा बना  उनके गोदी में हंसा था। लता की नई बेल  हवा में लहलहाई, अपने नर्म हाथों,  उनको पास बुलाई। अभी अभी, शुरू हुआ था उनके जीवन का श्रीगणेश। खोजने पर भी कहीं नहीं था, दिखता जीवन का एक भी कलेश। अपने अपने नसीबों,  कर्मों में लिपटे ये लोग, जिदंगी लड़ते खपते  जीते बिना किसी भोग।  खुश है अपनी दीनता में  ये लोग, लोगों से दूर,  अपनी बुनी दुनियां में दूर सबसे, बहुत दूर। खुश रहने की कोशिश  में सदा खुश रहते हैं। जंगलों, खोंहों, रेगिस्तानों टीन टप्पर संकरी गलियों में बने मकानों, पॉलिथीन से बनी दीवारों के मकानों तले गर्मी ठंड से बेखबर खुले मैदानों में पले.., खुशहाल, बदहाल, हरहाल में होते हैं चुलबुले।  ऐसे लोगों को भी जो कभी पूरी खुशी नहीं पाते, खुशी की खोज में ही हैं  सारी जिंदगी गुजर जाते।...

ये दुनियां आप ही बनती, बिगड़ती, डोलती है।

"उसकी तन्हाई।" उम्र की झुर्रियां का... सच  तो मैने देखा , पर "कहां से" रो रहा था वो, यह तो मैने नहीं देखा । यह उसकी अपनी ही दास्तां थी  या सबकी  जो देखा मैने! आंखों की बूंदें सरक, चेहरे के नीचे झुर्रियों में भर रहीं थीं देखने में आंखें "सख्त थीं"  अब भी,  पर कुछ ज्यादा  नम… थीं। बोली "फंस गई थी कहीं"  भीतर उसकी, कुछ देर में, रुंधी सी, बाहर आई, रुआंसा होने को ही था वो, पर उससे भी पहले.. बोल उठी,  "उसकी तन्हाई।" यद्यपि वह सुखी हम सबसे ज्यादा था, यह बात तो मैं पहले से ही जानता था। भाव: दुनियां का सबसे बड़ा कष्ट और संताप अकेलापन, अपनो से बिछुरन होता है। तन्हाई में जीना आदमी को अंदर से तोड़ डालता है। घुटा हुआ जीवन मात्र बचता है। दुनियां की सीमाएं यह अपरिमित सी दीखती दुनियां कभी कितनी बड़ी थी, आंखों में समाने को कौन कहे किताबों के पन्नों तक भरी थी। अच्छा है की हाथों में पाने और  पकड़ने की सीमाएं हैं,  फिर भी ये सभी के सपनो से भी आगे निकल जाती हैं। यादों के कोनों को मुन्नौवर करती,  मन और उर में भी, भर समाती हैं। नहीं पता था तब, दुनियांदारी...

खिलखिला एक बार हंस लूं ! जिंदगी में,

कोई गीत..  गाओ..  जिंदगी का…  आज फिर एक बार..  पिछला, सुन  कोयलिया…  पिन्हकती थी… डाल पर... एक हूक देती… टीसता… था,  दर्द.. मेरा वो पुराना.. बाल पन… का। फिर सुआओ,  आज तुम… एक बार फिर से, चाहता हूं, मैं गुजरना टीस से उस,  जो फंसी है बिंदु सी  मेरे हृदय में। कुछ करो…  तुम आज ऐसा…,  देख तुझको..  झूम जाऊं…  पेड़ की  उन टहनियों सी  लिपट जाऊं,  अंक में… मैं,  फिर तुम्हारे, बेसुध नचूं… तेरी ताल पर और  चूर हो थक हार कर  फिर… बैठ जाऊं…, मैं यहीं पर। आज फिर  एक बार, सच  मैं चाहता हूं… कुछ करो!तुम!  छेड़ तो तुम, " वो तराना"… था पुराना सुन जिसे हम  मुस्कुराकर.. प्यार से  नजरें… झुकाकर…  बैठ कर  मजधार तिरते पतवार बिन  बहती तरी सा… तैरते चुपचाप थे, दूर तक बिलकुल अकेले, आनंद लहरी,  की नदी में…, कुछ ही क्षणों में… छोड़ युग की  चाहतों को…शून्य तक। कुछ करो! एक बार फिर से! चाहती हूं उन क्षणों  में लौट पाऊं। सोचती.. हूं.. "खिलखिला  एक बार हंस लूं!" ...

कौन इंतजार करे, गर्मी सहे,अंदर से बहे, पिघले

बार बार कहता हूं  लोगों से, “जिंदगी” जी लो! भागो मत  “गर” पास आए  सज कर  यह “जिंदगी”  तो….  तुम भी;  प्यार से छू.. लो। जिंदगी क्या.. है गति, अंदर से बाहर…की। निकलती, फैलती बस पांचों इंद्रियों के  माध्यम से पनपती। घोड़ा नहीं है,  की उस पर होकर सवार तुम दौड़ते रहो,  बेखबर रह, सारा संसार। वास्तव में तो यह,  “मैं से हम तक” की दूरी थी, इससे भी छोटी थी, केवल अपने  “मैं तक”  पहुंचने की  चुनौती थी। सीजना था,  हमें  अपने ही भीतर, ...भीतर… अपने ही रस में।  पकना था…, “केवल” बाहर के  दुनियां की गर्मी से। पर कौन  इंतजार करे,  गर्मी सहे,  अंदर से पिघले, बहे। इसीलिए तो  प्रेम,करुणा दया, मया नहीं जागती  भीतर। शुष्क है,  तन, मन, हृदय,  अंतर तम। जिंदगी ज़मीन पर रहती  तो ज्यादा अच्छा। “मेहनत से छैलती, फैलती” तो बहुत अच्छा। लेकिन यह तो वर्टिकल भागी, नेता, अभिनेता सभी बने सहभागी। लगे तो सभी हैं,  तुरंत राकेट पर, चढ़ जाऊं, शाम होते होते अरबपति बन जाऊं। कितना सोच के दो पैर, चल...

सच के सिवा और कुछ नहीं हैं, आईने”

सुनो..  “कभी झूठ नहीं बोलते..  'आईने'.... सच के सिवा  और कुछ नहीं हैं,  "आईने”। तो क्या, इस साफ आईने में  मैं “अपना सच”  देख रहा हूं। फिर क्यों  इस सच को.. तराजू में  तौल रहा हूं। कोई तो है,  छुपा रहता है,  मुझ अकेले में,  मेरे ही भीतर, चुपचाप बैठा  मेरी ही मिल्कियत  के अंदर..। सही / गलत को  खूब समझता,  समझाता है, इतना ही नहीं सही को गलत,  गलत को सही  ठहराता है। कभी इधर,  कभी उधर,  चुपचाप भगाता है, इधर से उधर,  पल में,  विरोधाभास बनाता है। मुझे शंका हुई,  क्या मेरी मिल्कियत,  बंट गई? देखते ही देखते,  कैसे ये सारी  घटना, घट गई। कम से कम,  अपना तो सोल  मालिक था, मैं! ये सब, क्या हुआ,  मैं न तो घर का  न घाट का हुआ ? इस आईने का  "मैं", क्यूं मुझे  ऐसे, देख रहा है, लगता है मुझ पर,  हर वक्त..  ये नजर रखता है। कोई तो है 'ये' जो,  मुझे अंदर से पहचानता है, मुझे लगता है,  मेरे अंदर का भी सब जानता है। क्या!  मेरा सच, "यह...

बनफसा के फूल सा, जो महकता है, रात दिन।

 कुछ तो, तेरे, मन बसा था,  कुछ था..., मेरे, मन. बसा।  बनफसा... के फूल, सा जो  महकता...., है... रात दिन।   "मन-उर्मियोंं" को    सांत्वना मत    दो अभी;   देखो न !   ये बौछार,    कैसी आ रही है।   कुछ.. कहीं..    अवशेष.. थोड़ा   रह गया होगा,   कहीं.. पर,   देख लो    एक बार...;   आखिर क्यों    बदलियां छा रही हैं।    देखकर…. वह     सोच… में     पड़ता… गया,     वर्षात की     उस फुलझड़ी के साथ,      चुप खड़ा बादल,     वहां क्या कर रहा था,    बारिशें…. घनघोर…     क्यों,     चंहुओर घेरे थीं उसे,    क्या सोचता    वह, उस तरफ    क्यों कुछ कदम     आगे बढ़ा था।    रुक गया था,    सोचकर कुछ     मर्म था! क्या     बीच में?    भांपकर जिसको ...

खुद से एक नहीं, दिन मे कई बार मिलता हूं।

एक अजीबोगरीब  कश्मकश से गुजरते हुए  मैने सोचा आखिर अंत  तो हर चीज का होता ही है। रास्ता कितना भी  बड़ा कर लो। रास्ता मंजिल तो  नहीं हो सकता। आखिर मंजिल ही  हर जीवन का सच है क्या? यदि वह पश्चाताप ही है,  पीड़ा ही है तो मुड़ना होगा। रास्ता बदलना होगा,  ‘सागर और मन’ लहरों  से पटे पड़े रहे हैं हमेशा।  कब तक अशांति में तैरोगे। डूबने से बचोगे, खैर मनाओगे कब तक काजल से तो  निकलोगे ही एकदिन। यद्यपि जीवन यहीं से  इसी में निकलता है, पलता, बढ़ता और  सिमटता है। फिर भी सुबह और  शाम एक नहीं होते। बीच में दुनियां है,  पर यह भी सत्य नहीं। सुबह के पहले  और शाम के बाद उस शांति का ही  राज होता है। उसी की तलाश में  दुनियां दिन भर दौड़ती है,  अशांति में जीती है शांति से शाम को  अच्छी सी नींद आए और  सुबह तरोताजा  शांति पूर्ण स्थिर हो इसी की तलाश में रहती है। मैं अब अपने  नीचे ही बैठता हूं, रोज खुद से एक नहीं  कई बार मिलता हूं। हम हररोज जिंदगी  की बातें करते हैं,  हम दोनों मिल बैठ...

हैं सरल पर पा पवन संग झूम जाती।

पातियों का  पट लपेटे,  नवल विकसित  कोपलों को संग लेकर  डालियों का  मुस्कुराना  आज देखा  प्रात ही में। पवन भी  अठखेल करता  घूमता था,  गुदगुदाता  बह रहा था,  चरमराती शीर्ष की  वह साख सचमुच  तोड़ती थी  अंग अपना  आखिरी तक। विह्वला हुई  टहनियां  टूटने तक  झूमती थीं,  पत्तियों की  सरसराहट  शीर्ष के इस  खेल को  लय ताल में  ले बह रही थीं, मेरे हृदय तक। यह अश्वथों का  कुंज था,  एक तने के  पास बैठा  ध्यान में डूबा हुआ आत्मस्थ था,  पर सुन रहा था। ध्यान की गहराइयों में   मुझसे कोई कुछ  कह रहा था।  उन पत्तियों की बात,  जो हर बात पर हैं, मुस्कुराती मुस्कुराते शिशु मुखों सा,  एक ही सा  देखकर उस  सर्पिणी का नृत्य  जो हो काल, या  नृत्य करते नेत्र  हों निज मातु के,  अंतर रहित वह।  प्रात की ठंडी हवा हो  या झूमता झोंका कोई,  ग्रीष्म में उस  दोपहर को झुलस देता,  एक सी हिलती है...

परछाइयां, परछाइयों से भिड़ रही थीं,

प्रथम क्षणिका जो चुना था आपने ………वो साथ है, जो नहीं है साथ…,  वो….तेरा कहां था। चुनने की एक सीमा होती है, कामनाएं असीमित, एंड लेस होती हैं। जो आप चुन लेते हैं वह आपके साथ बना रह सकता है पर मात्र आंखों को सुंदर लगने वाले और मन के बंध बंधे लोग या दृश्य क्षणिक ही होते हैं, समयबद्ध ही रहते हैं। अतः अपने मन को शांत संयमित रखें। द्वितीय क्षणिका छलनामयी चचंल ये चितवन एकदिन सागर समय में डूबकर उस पार होगी, डूबते सूरज की दुबली उस किरण सी पार होगी, पार होगी,स्मृति के पार होगी। यह मन की चंचलता, छद्म रूप रंग, बनावटी रंग सौंदर्य नष्ट प्राय है। डूबते सूरज सा जो सागर में या क्षितिज में अपनी किरणों के साथ डूब जाता है वैसे ही समाप्त होकर, हीन भावना में मिल कर स्मृति से दूर हो जाएगा। तृतीय क्षणिका झर... जाएंगे, ये.. फूल सुंदर  एक दिन,  खो जाएगी ये  खुशनुमा खुशुबू  तुम्हारी, एक किलक  रह जाएगी,  मन में तुम्हारे, क्यों चुना था इस धरा को  इस जनम में, पास से, इसको कभी देखा नहीं। इस जीव ने अपने जीवन के लिए इस पृथ्वी ग्रह को अपने लिए सहर्ष चुना है। यदि बिना यहां के यथार्थ ...

मां से ज्यादा अपना कोई नहीं।

ये धरा,  जितनी.... बड़ी हो, सोचो, समझो,  कह सको; कितनी बड़ी हों इसकी नितामतें, तैरो, भीगो रख सको। फिर भी सच सुनो ! गर मुझे  कहीं जमीं मिली “अपनी;” इस दौरे-जहांन के बियावान में पहली   बा......र ! तो.... वो..  “मेरी अपनी मां” थी। एक अहसास बन  मैं घूम रहा था, न बोल सकता था, न चुन सकता था। इस दौरे जहान में तेरे, मैं बिल्कुल अकेला था। परछाइयां भी मेरी तब नहीं थीं, मेरे पास फिर भी किसी ने मुझे पहचान लिया, सच, उसने प्यार से अरमानों की  पेंग बढ़ाते  हुए, मुझे थाम लिया। मुझे सपनों में चूमा  जिसने पहली बार  मैं आ चुका था दुनियां में  जिसने  जाना ये पहली बार, वो “मेरी अपनी यही मां थी।” वो क्या थी! कौन कहेगा इसको; ये, मैं ही, बता सकता हूं तुमको,  केवल; मैं ही, क्योंकि  “वो मेरी अपनी मां.. थी।” मुझे देखते ही आंचल  भारी हो जाते थे उसके, मेरी प्यास की आहट  के पहले न जाने कैसे,  अमृत उतर आता था सीनों में उसके। आंखों से दुलार बहता था, वे हाथ मेरे.... झूले... थे,  वो परी थी ही कुछ ऐसी  जिसमे.... मेरे सारे ...

बड़ी भूल हुई, सोचा मैने

सच कहूं तो,  ‘उसने’  बाजार-ए-जिंदगी को शुरू में ही ना कह दिया, बहुत बडा लक्ष्य तय किया,  पक्के संकल्प से  घर बार छोड दिया। होता, क्या! मिट्टी की काया  मिट्टी की दुनियां में फिरी, देखते ही देखते दुनियां ने  भी दिखाई, अपनी जादूगरी।  ‘हिरन में कस्तूरी’ की बात  आना था उसे, एक दिन  "अपने ही पास," पर खोजता रहा,  मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों  में खूब लगाए कयास। पहुंचे हुओं ने, उसे पहुंचाया था, रास्ता अपनी समझ से  अच्छा ही सुझाया था। नतीजा!  हां नतीजा निकला, बहुत बिजी रहा…,  पूरी जिंदगी, भागता, दौड़ता पंडितों, मौलानाओं तीर्थों, मजारों की दिन रात बंदगी करता। आखिर उसने सबकुछ  क्यों छोड़ा था, क्योंकि, उसने ठीक से पढ़ा था,  अनंत का हिस्सा भी  अनंत होता है अनंत बन कर 'हिस्सा भी'  अनंत के साथ खाता  पीता, सोता और जीता है। जाने न कितनी मिन्नतें, मन्नतें, सजदे, तिलावत नाम, जप, तप किए उसने,  सारी जिंदगी ही गुजार दी  मुफलिसी के दयार में उसने। आखिर एक दिन, अचानक मंजूर-ए-इबादत हुई, उसकी, देखते ही देखते...

खिलता हुआ कोई फूल… मैंने कभी देखा नहीं था

आंखे बंद थीं  मेरी…, मैं…., स्वप्न के  आगोश में था, रात्रि में… खिलता हुआ  कोई फूल… मैंने कभी  देखा नहीं था। ‘मूक’ था, मैं, ‘मौन’  मेरे  पास ही  बैठा हुआ था, चांदनी…. किस ओर  जाने देखती.. थी, चांद…तो  सहमा हुआ  नीचे पड़ा था। क्या हुआ,  मैं क्या कहूं! एक बेल छोटी,  थोड़ी लम्बी, आ गई  सपने के भीतर। सांवली…  शायद वो  कुछ थी, कलियां लगी थीं आंखुरों पर। खिलने लगीं  मेरे सामने, मैं, देखता बस चुप  खड़ा था। दूधिया हंसी हंसने लगीं, किलकारियां करने लगीं मैं घुल गया उन परिमलों की गंध संग आकंठ, अन्तस  स्वत्व में डूबा हुआ सा। जय प्रकाश मिश्र चाहत, होती होगी, कितनी उन, हाथों में, अधर, दृगो में जो, बैठी, जग बुनती होगी  जाग अकेले…एकांतों.. में। जय प्रकाश मिश्र भाव: जीवन एकांतों में, गहन ध्यान में, कल्पनातीत गहराइयों में, अनुभव और अनुभूति के शिखर पर आनंद में लहरें ले सकता है। मैंने यह सत्य स्वयं अनुभूत किया हुआ ही लिखा है। एक मां जब इस जग के भविष्य को अपने गर्भ में धारती है, 'समय का वह अंतरा'  किन भावनाओं...

कौन खुशी के चक्कर काटे

मैं क्या हारूं !  मुझपे है क्या ! वो…. हारे.. जिस पर है.. “सब कुछ”।   मैं तो “जीता”  जीता हर दिन,  मेरा तो  हर दिन ही  शुभ है। निर्बल, कमजोर, साधनहीन का जीवन अपने अभाव में भी अति संपन्न लोगो की अपेक्षा अनेक मायनों में भय रहित, निर्द्वंद, मस्त और चिंता रहित होता है क्योंकि वे आधार पर ही होते हैं।  भय, और अवनति का डर उन्हे नहीं होता। वह तो नित्य विजित ही जीवन जीता है क्योंकि हारने को उस पर कुछ विशेष नही।  उसके लिए कोई दिन शुभ अशुभ नहीं। उसकी मेहनत से उसका हर दिन शुभ बनता है। समय से पहले, समय के बाद…, सारी लड़ाई…  इसमें.. ही है। “जीत” जीत  सब पड़ा ही रहता सारी लड़ाई  “जीत ही” तो है। समय की नोक पर या समय के सापेक्ष ही हर चीज महत्व रखती है।  आवश्यकता के समय सहायता, सामर्थ्य, धन का मिलना महत्व रखता है उसके बाद वही चीजे महत्वहीन हो जाती हैं।  लड़ाईयां चाहे इज्जत के लिए या संपदा के लिए हुई हों उनमें जीतना महत्व का होता है, जीतने के बाद उन बातों को और संपदा को सभी भूल जाते हैं।  अनेक बार युद्ध मात्र जीत के लिए होता है न ...

इस धरा पर स्वर्ग ही उतार देती।

  वायु के संघात के  इन स्थलों से, वायु के संचार  को मैं देखता हूं, एक व्यंजन  संग लेकर,  फूटते है, बांधते  संसार को  अपने स्वरों में। पूरा वाङ्मय, बोल चाल वायु के मुंह में विभिन्न स्थानों पर पेशियों के स्पर्श से उत्पन्न होता है। और संसार की सारी बातों को अपने इस तरह ही उच्चारण में समाहित कर लेता है। इन स्वरों में क्या छुपा है, बेधते मस्तिष्क सबका, स्वांस के विचलन से पैदा अक्षरों में डूबता हूं। इन अक्षरों अर्थात स्वर और व्यंजनों में सारे प्राणी, मनुष्य अपने दिमाग से एक जैसे बंधे हुए हैं। यह पूरा खेल मात्र स्वांस के अपने विचलन से अर्थात वायु के मुंह में वाणी बनने से पैदा होता है। इस वायु की गतिमय लय में कैसे सारे भाव और विचारो के संप्रेषण की क्षमता छुपी है, इस पर विचार करते हैं। स्वांस का  आवागमन  जीवन हमारा, स्वांस के परिचालनों में है बंधा यह विश्व सारा। स्वांस का झरना  है झरता इंद्रियों में, स्वांस ही अनुभूति  बनाती है मनों में। स्वांस ही  आवाज बन कर निकलती हर कंठ से है, स्वांस ही आवाज बन मानव मनों को  जोड़ती  है। स्व...

कशमकश ही है ये जिंदगी।

एक किताब पढ़ी थी कभी "जलती नदी", कमलेश्वर की लड़ती, अंतर्द्वंदों... के बीच... अंतर्द्वंदों.... से कुछ ऐसी.. ही। कसमकश,  …..ही है,  ये जिंदगी ….भीतर  सबके…। कुछ भी वह सोचे,  भावना करे, भागे कहीं भी आगे या पीछे। मिले, पाए, संरेखित हो,  योजित करे,  या 'साधे' सीधे। मुड़ते मोड़ पे, भीड़ में, अकेले, या जिंदगी में किसी और के। मिला दे कोई / भाग्य से मिले। जो कुछ भी हो संग उसके। दबाव में, समाज के, लोक मर्यादा के चलते। या कैसे भी बस बहे लेकर, संग उसे…..  उसी में..  उसी के.. साथ… जीवन भर ऊंचे नीचे। लोग बहते हुए तैर भी लेते हैं, कभी कभी, फिर भी, सबके बस की बात ये नहीं होती। हर नदी के किनारे और धरातल भी होते हैं। एक रास्ता भी होता है,  सदा उसके पास, उसे आगे  बढ़ने के लिए। जीवन हो या नदी,  बहना,  आगे बढ़ना अच्छा होता है। बहना ही तो जीवन है। एक बात तो माननी ही होगी हम सबको,  जो नाले  बस्तियों,  शहरॉ से आकर  नदी को रास्तों में मिल जाते हैं, जगह जगह गंदे ही होते हैं। एक क्षण को सूखती नदी के बहाव में तीव्रता पैदा तो करते हैं;...

काल काला ही नहीं उजला भी होता है सुनो।

अस्तित्व क्या है ? सत्य है सचमुच कोई... ! या, बदलता परिदृश्य है,  यह "समय" के संग बदलता  अनवरत, हर एक रूप भीतर, बन हमारा या तुम्हारा। फिर "समय" क्या है ? बदलते घटनाक्रमों के बीच  "चुप बैठा हुआ,  कोई समुच्चय अंतरों का" या दूरियां नापी गई परिवर्तनों से। सत्य है ! अस्तित्व यदि  तो यह सतत गतिमान क्यों है? घूमता और नाचता,  इन ग्रहों और उपग्रहों पर। बह रहा आकाशगंगाओं के  संग संग नष्ट होता  क्यों सकल संग। फिर कहां अस्तित्व है ?  वह! जो बह गया, बदलते  परिवर्तनों के साथ ही, मृदु तरल बनकर। सोचता हूं, खोजता हूं,  इस भागते धुंधले, भंवर को; देखता हूं; ध्यान करता:  उन अतल गहराइयों का, तल नहीं, गहराइयां ही मात्र हैं जो डूबता हूं डूब कर मैं  निकलता हूं, शीर्ष पर  "सच देखता हूं," "गहराइयों का शीर्ष ही आकाश है, शून्य हैं गहराइयां, शून्य ही हैं शीर्ष सारे" मध्य क्या है?  ढूंढता हूं। "एक ही, हर ओर" इसको पा रहा हूं, हूं यहां और हर जगह मैं  एक सा संव्याप्त सबमें।  बह रहा है काल  मुझमें सरसराता बालुका सा। परिवर्तनों में ...

मन मसोसे बिना ही, थोड़ा मुस्कुराएं।

  पांच पंखुरियाँ फूलों की, आप के लिए पहली: मेरे वहां से चलने के पहले उसने धीरे… से कहा! “कल फिर आना, थोड़ा मिल बैठेंगे” फिर उंगलियां घुमा लीं,  उसने, सारी  बड़ी मुलायमियत से, अपनी,  मेरे सामने,“पीछे”! पर उसकी आंखों के  फिरने से पहले पलकें झुका ली मैने* “तुम भी कल फिर आना” शायद! यही कहा था मैने! दूसरी: तुम खेल लो कुछ पल मेरे संग, ‘खेल ही है ये सब फैला यहां’ बाकी क्या बचता है कुछ खट्टी मीठी यादें संभालने को जीवन भर। नहीं खेलोगे! मेरे साथ! तो वो भी, एक खेल ही होगा; जैसे कोई बच्चा  खेलता हो चुपचाप  अपने ही संग। तीसरी: सुना है, सीरियस रहने से बाहर, कहीं टेंशन बन जाता है  भीतर। सच्चा प्रदर्शन नहीं हो पाता फील्ड ऊपर,  इसलिए तुम अपना, पूरा दो मुझे मैं भी अपना, पूरा दूं तुमको “अटेंसन” तभी तो ‘लोग भी’  देख देख हमें, खुश होंगे,  आनंद बढ़ेगा,  मुस्करा-ए-गा  घर आंगन। चौथी: खोले पन्ने  किताबो के, मिला भी उनसे,  बातें भी पढ़ीं, फिर भी जाने न, कितने  तट,  हैं छूटे, आज  तलक अपने ही भीतर  सहमे, रूठे, पाया मैंने...

सृष्टि रचना ही नहीं मेरी परीक्षा,

लो वारती हूं  साज सारे  मैं तुम्हारे ही लिए अब। बो रही हूं  फूल सारे, पास में जो  थे हमारे। साथ में  खुशियों के तारे,  आज तक  जो कुछ  मेरे थे, ख्वाब में, रंग, खुशबू,  ताज़गी  सारे के सारे। समझती हूं,  जानती हूं, धारती हूं  शक्ति सब। मुक्तता की  देवि का,  दीवट, कभी मैंने छुआ था। बंधनों के ‘बंध’  की सारी महत्ता सोचकर,  खुद बंध गई हूं बंधनों में साथ तेरे,  बन गई हूं आज  मैं तेरी वधू अब। हर दृष्टि का  तुम आवरण मेरे लिए हो, यह सौर मंडल आज मुझमें बंध गया है। सृष्टि रचना ही नहीं मेरी परीक्षा, सभ्यता के मूल की वह मौन स्वीकृति, इन बंधनों के बल से मुझको प्राप्त है।  जय प्रकाश भाव: (प्रथम स्टेंजा) जब भी हम किसी भी दायित्व बोध का वरण करते हैं तो अपने बहुत सारे स्वछंदताओ को छोड़ते भी हैं। अपनी पसंद में उस अपने पसंद के प्राणी की पसंद को मिला कर ही आगे बढ़ते हैं। फिर उस बदले नए जीवन में सुख समृद्धि के लिए अपना सब कुछ लगा देते हैं। (द्वितीय स्टेंजा) जब हम अपनी प्रसन्नता से कोई चयन कर लेते हैं तो अपने कर्...