हैं सरल पर पा पवन संग झूम जाती।
पातियों का
पट लपेटे,
नवल विकसित
कोपलों को
संग लेकर
डालियों का
मुस्कुराना
आज देखा
प्रात ही में।
पवन भी
अठखेल करता
घूमता था,
गुदगुदाता
बह रहा था,
चरमराती शीर्ष की
वह साख सचमुच
तोड़ती थी
अंग अपना
आखिरी तक।
विह्वला हुई
टहनियां
टूटने तक
झूमती थीं,
पत्तियों की
सरसराहट
शीर्ष के इस
खेल को
लय ताल में
ले बह रही थीं,
मेरे हृदय तक।
यह अश्वथों का
कुंज था,
एक तने के
पास बैठा
ध्यान में डूबा हुआ
आत्मस्थ था,
पर सुन रहा था।
ध्यान की गहराइयों में
मुझसे कोई कुछ
कह रहा था।
उन पत्तियों की बात,
जो हर बात पर हैं, मुस्कुराती
मुस्कुराते शिशु मुखों सा,
एक ही सा
देखकर उस
सर्पिणी का नृत्य
जो हो काल, या
नृत्य करते नेत्र
हों निज मातु के,
अंतर रहित वह।
प्रात की ठंडी हवा हो
या झूमता झोंका कोई,
ग्रीष्म में उस
दोपहर को झुलस देता,
एक सी हिलती हैं
चुप ये कोपलें,
अंतर नहीं।
ये मुस्कुराती डोलती हैं।
साधु सी हो शांत
विगलित क्लांति
खुद अपनी धुनों पर।
रंगी ललछुहें के रंग
धानी, पीलिमां ले अंग
तरलता संग बैठी
पास में चुप
हंस रही हैं।
संग डालियों के लचकती
उत्दोलती यह साख
वैसाखी हवा संग
टहनियां मोड़ती है,
अंतिम चरण तक
फिर लौटती है।
ले लहर.. का..
अंत… सुख…
वापस वहीं पर,
थी जहां पर
झोकों से पहले
शांत होकर, श्रमित होकर
लांघकर सीमांत की सीमा की, हद तक।
नटखट नटी
सी नट रही,
हां/ना के बिच बिच झूमती
किसी बालिका सी मचल रहीं,
उरतंतु लेकर ये लताएं डोलतीं हैं।
झुमकती कुछ आगे बढ़ती,
चिहुंकती सी पीछे हटतीं
थिर खड़ी हो सोचती हैं।
कंपकंपाती डालियों पर
धीरे धीरे शांत होती।
क्या करें यह
एक मन इनका
हवा संग बह रहा है।
खींचता है
तन को इनके
टूटने तक
आगे पीछे
लचकतीं ये सुस्त
होकर बैठती हैं।
घुंघुनें से स्वर
पवन के सुनते सुनते
देखते ही देखते
यह मचल जाती
डालियों से हैं जुड़ी
पर चाभुरों तक
हैं सरल पर
पा पवन संग झूम जाती।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: मन आकाश को धारण करता है और वायु से ऊर्जित होता है। कल्पना के साथ उड़ता, पेंगे मारता रहता है। फिर भी यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता। वही सत्य होता है। वहीं शांति और वास्तविक सुख मिलता है। अतिरेक या अति थकान और प्रायश्चित भरा होता है, सीमांत तक सुख पश्चाताप का कारण होता है। संयमित जीवन सुंदर होता है। मन को और आवेग को रोकना श्रेयस्कर होता है।
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