खुद से एक नहीं, दिन मे कई बार मिलता हूं।
एक अजीबोगरीब
कश्मकश से गुजरते हुए
मैने सोचा आखिर अंत
तो हर चीज का होता ही है।
रास्ता कितना भी
बड़ा कर लो।
रास्ता मंजिल तो
नहीं हो सकता।
आखिर मंजिल ही
हर जीवन का सच है क्या?
यदि वह पश्चाताप ही है,
पीड़ा ही है तो मुड़ना होगा।
रास्ता बदलना होगा,
‘सागर और मन’ लहरों
से पटे पड़े रहे हैं हमेशा।
कब तक अशांति में तैरोगे।
डूबने से बचोगे,
खैर मनाओगे कब तक
काजल से तो
निकलोगे ही एकदिन।
यद्यपि जीवन यहीं से
इसी में निकलता है,
पलता, बढ़ता और
सिमटता है।
फिर भी सुबह और
शाम एक नहीं होते।
बीच में दुनियां है,
पर यह भी सत्य नहीं।
सुबह के पहले
और शाम के बाद
उस शांति का ही
राज होता है।
उसी की तलाश में
दुनियां दिन भर दौड़ती है,
अशांति में जीती है
शांति से शाम को
अच्छी सी नींद आए और
सुबह तरोताजा
शांति पूर्ण स्थिर हो
इसी की तलाश में रहती है।
मैं अब अपने
नीचे ही बैठता हूं,
रोज खुद से एक नहीं
कई बार मिलता हूं।
हम हररोज जिंदगी
की बातें करते हैं,
हम दोनों मिल बैठ
रोज लोगों की मीठी होती
जिंदगी को नमकीन,
फिर खट्टी, कडूई, और
अंत में रद्दी की टोकरी में
जाते देखते हैं।
पर अब हम
एक साथ मुस्कुराते
हंसते और झूम झूम कर
नाचते गाते फिरते हैं।
हंसते हुए चेहरों में मुस्काती हुई आंखे थीं
वो कैसे निठुर होता, भीगी हुई पलकें थीं।
बुनती हुई नजरों से उलझन में पड़ी थी वो
कैसे वो बच पाता, लहरों की नमी थी वो।
जय प्रकाश मिश्र
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