इस धरा पर स्वर्ग ही उतार देती।

 

वायु के संघात के 

इन स्थलों से,

वायु के संचार 

को मैं देखता हूं,

एक व्यंजन 

संग लेकर, 

फूटते है,

बांधते 

संसार को 

अपने स्वरों में।

पूरा वाङ्मय, बोल चाल वायु के मुंह में विभिन्न स्थानों पर पेशियों के स्पर्श से उत्पन्न होता है। और संसार की सारी बातों को अपने इस तरह ही उच्चारण में समाहित कर लेता है।


इन स्वरों में क्या छुपा है,

बेधते मस्तिष्क सबका,

स्वांस के विचलन से पैदा

अक्षरों में डूबता हूं।

इन अक्षरों अर्थात स्वर और व्यंजनों में सारे प्राणी, मनुष्य अपने दिमाग से एक जैसे बंधे हुए हैं। यह पूरा खेल मात्र स्वांस के अपने विचलन से अर्थात वायु के मुंह में वाणी बनने से पैदा होता है। इस वायु की गतिमय लय में कैसे सारे भाव और विचारो के संप्रेषण की क्षमता छुपी है, इस पर विचार करते हैं।


स्वांस का 

आवागमन 

जीवन हमारा,

स्वांस के परिचालनों

में है बंधा यह विश्व सारा।

स्वांस का झरना 

है झरता

इंद्रियों में,

स्वांस ही अनुभूति 

बनाती है मनों में।

स्वांस ही 

आवाज बन कर

निकलती हर कंठ से है,

स्वांस ही आवाज बन

मानव मनों को जोड़ती है।

स्वांस ही 

बन प्राण 

हमको 

मुक्ति देती 

इस जगत से,

स्वांस ही है 

शक्ति देती

हर यज्ञ की 

समिधा यही है।

स्वांस अति महत्व पूर्ण होती है, इसीलिए हमारे यहां योगी, साधु, सन्यासी, साधक स्वांस पर बहुत शोध किए हैं, की कैसे इस पर नियंत्रण किया जाय। सांस पर नियंत्रण आत्म नियंत्रण ही नहीं संसार पर भी नियंत्रण का मार्ग है।


वायु की 

गति शीलता 

ही शब्द

बन कर 

निकलते है,

स्पंदनो का 

खेल है 

संसार अपना

सोचना तो !

सूक्ष्म कितना है

जगत इसे देखना

तुम ध्यान से,

वायु के कंपन 

निकलते 

जब मुखों से

झुलस जाते, 

मुस्कुराते 

गात कितने,

नित्य ही हम

देखते हैं।

वायु से ही सारे शब्द बनकर मुंह से निकलते हैं। वास्तव में देखें तो सूक्ष्म तरंगों, स्पंदनों से ही यह जगत वाणी के माध्यम से गतिमान है। इस उच्चारण मात्र से ही कितने लोग खुश और दुखी होते रहते हैं।


बांध लेते 

वायु के 

स्पंदनों को 

शब्द खुद में,

तैरते है 

वायु में 

स्वच्छंद होकर,

पास मेरे। 

तिरते हुए किस तरलता से

व्याप्त होते हर तरफ ये,

आइना बन कर दिखाते 

प्रतिबिंब ये अंतर्मनो का।

अक्षर वायु के मूल में स्थित भाव को अपने में समाहित करने की क्षमता रखते हैं। और आकाश में बिना रोक टोक अपने सत्य के साथ सर्वत्र निर्वाध गमन करते हैं।

अक्षरा 

अक्षर हैं, 

सचमुच 

नित्य हैं,

सत्य भी 

होते 

अगर तो 

शक्ति इनके

साथ ही 

सम्मिलित होकर 

इस धरा पर

स्वर्ग ही उतार देती।

जयप्रकाश मिश्र

भाव : अक्षर सत्य हैं, नित्य हैं, और अगर मनुष्य अपने इस ईश्वरीय शक्ति में सत्य का ही वाचन करे, वाणी बोले तो इन अक्षरों में असीमित शक्ति हो जाती और इस धरा से दुख मुक्ति भी संभव होती। क्योंकि जो सत्यवादी होते हैं उनकी भाषा का अनुपालन यह समष्टि भी करती है।इसलिए हमे अपने जीवन में सत्य बोलना चाहिए इससे वाणी में दैवीय शक्ति आ जाती है।

 जय प्रकाश मिश्र


Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता