कशमकश ही है ये जिंदगी।

एक किताब पढ़ी थी कभी

"जलती नदी", कमलेश्वर की

लड़ती, अंतर्द्वंदों... के बीच...

अंतर्द्वंदों.... से कुछ ऐसी.. ही।


कसमकश, 

…..ही है, 

ये जिंदगी

….भीतर 

सबके…।

कुछ भी

वह सोचे, 

भावना करे,

भागे कहीं भी

आगे या पीछे।


मिले, पाए,

संरेखित हो, 

योजित करे, 

या 'साधे' सीधे।

मुड़ते मोड़ पे,

भीड़ में, अकेले,

या जिंदगी में

किसी और के।


मिला दे कोई /

भाग्य से मिले।

जो कुछ भी हो

संग उसके।

दबाव में,

समाज के,

लोक मर्यादा

के चलते।


या कैसे भी

बस

बहे लेकर,

संग उसे….. 

उसी में.. 

उसी के..

साथ…

जीवन भर

ऊंचे नीचे।


लोग बहते

हुए तैर भी

लेते हैं,

कभी कभी,

फिर भी,

सबके बस

की बात ये

नहीं होती।


हर नदी के

किनारे और

धरातल भी

होते हैं।

एक रास्ता भी

होता है, 

सदा उसके पास,

उसे आगे 

बढ़ने के लिए।

जीवन हो या नदी, 

बहना, 

आगे बढ़ना

अच्छा होता है।

बहना ही तो जीवन है।


एक बात तो

माननी ही होगी

हम सबको, 

जो नाले 

बस्तियों, 

शहरॉ से आकर 

नदी को रास्तों में

मिल जाते हैं,

जगह जगह

गंदे ही होते हैं।

एक क्षण को

सूखती नदी के

बहाव में

तीव्रता

पैदा तो करते हैं;

पर सेहत और

जीवन को

ले डूबते हैं।

नदी "काली 

होकर" सूख

ही जाती है।

मन में "पश्चाताप

के आंसू"

बहाती है।


इसीलिए जीवन हो

या नदी दोनो में

सतत, स्वस्थ बहाव के लिए

शुचिता बहुत जरूरी है।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: हमारा जीवन अनेकों ऊंचे नीचे धरा-तलो से मिल, बिछड कर बहता है। लोग मिलते हैं, अनेक कश्मकश से हम जीवन में गुजरते हैं। पर अंतिम प्रसन्नता तभी मिलती है जब अपने जीवन में हम आरंभ से ही शुचिता अपनाएं और अपनी राह चलें।

जय प्रकाश मिश्र









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