आशा की तरह जलेगा, कुछ फर्क तो पड़ेगा।

शाम तो मेरी थी 

भीतर अपने फैली,

फिर बाहर अंधेरा 

क्यों इतना फैला।


मन में आया 

एक दीप जला दूं, 

रख दूं।

किसी घर के 

दीवट पर 

हमेशा की तरह।


आशा की तरह 

जलेगा, 

कुछ फर्क तो पड़ेगा।

कोई दूर से देखेगा

तो सोचेगा,

लगता है, कोई रहता है 

इस घर में  अभी।

आखिर जीवन भी प्रकाश 

की तरह, ही तो चमकता है ।

अपने में ज्ञान ज्योति भरकर

ही तो दमकता है। 


खोजता हूं दीवट, 

आज की दीवारों पर,

अब कहां प्रचलन रहा 

संझरौती का मकानों पर।

कोई दीप, दिया, लालटेन रखे 

चौखट पर यहां कहां!

बदल गए हैं लोग, बदल गया 

है उनका सारा जहां। 


मैं सोचने लगा।

हां हां, मैं वही सजावट-दार चौखट ही 

खोज रहा था,

जो घर के मुख्य दरवाजे के नीचे लकड़ी 

का ऊंचा हिस्सा होता था, 

जो रोक देता था, सारी बलाय, दुरिता

अपने बल से।

केवल सद्बुद्धि और लक्ष्मी ही जा सकते थे 

उसके ऊपर से ।

जिस चौखट की जीवन भर 

लाज रखने की

बातें होती थीं,

मां, दादी, भाभी, 

और बहुओं में 

जिसके सम्मान 

की बातें होती थीं।

गायब था, 

मेरी ही 

"चुरकी की तरह" 

सच कहता हूं 

मानो तुम!


सुनो तो;

आगे मुख्य दरवाजा और 

पीछे एक अदद खिड़की,  

घरों में अपने 

पहले थी होती।

शान से जाते थे 

आगे के दरवाजे से,

और चुपके चुपके धीरे से

निकल लेते थे पीछे से।

ले, दे के कोई घट्टी बढ़ी 

घर की जरूरत हो कभी। 


याद है मुझे 

अच्छे से 

खिड़की में बाहर से 

कोई सांकल कभी नहीं देखी 

जिंदगी में अपने।

क्योंकि जा तो सकते थे इससे

बाहर, पर लौट नहीं सकते थे,

बिना अनुमति के घर में।

और मुख्य दरवाजे को 

बाहर से ताला लगा कभी 

नहीं देखा मैने।

दोनो ही भीतर ही से

खुलते बंद होते थे

यही देखा मैने।


मुख्य दरवाजे की 

एक शान थी, 

उसकी चौखट 

बुजुर्गों सी आदर 

की निसान थी।

सर झुकता था 

पूरे घर का इस पर, 

मां बेटी बहुओं के लिए 

तो ये ईमान थी।


इसी चौखट के 

किनारों पर दीवट 

बनती थी।

जिसपर संझलौके ही 

कम से कम एक 

दिया जलती थी।

लक्ष्मी का रूप थी 

उसे पूजते थे, 

घर के बड़े बूढ़े 

आदर से उसपे, सिर से झुकते थे।


शाम को दीया बाती करना 

एक मुख्य काम होता था, 

तेल डालो, बाती निकालो, 

शीशे साफ करो, 

संझबेला की लक्ष्मी के 

आने से पहले 

जला कर दीवट पर रखो 

एक मुख्य काम होता था।

यही सोचकर रोज शाम

अंधियारा होने के पहले

एक शब्दों का दीपक जलाता हूं

इनमे अपना स्नेह भर कर आपके

दीवट पर चुपके से रख जाता हूं।

आप इसे कैसे लेते हैं, 

मैं नहीं जानता,

फिर भी आशा फैले

कोई यहां है, आपके पहले, 

ये उम्मीद फैले, ये उम्मीद फैले।

जय प्रकाश मिश्र 

     

ये उपवन सिहर उठता है, 

रंगो आब बिखर जाती है।

जवां फूल मचल उठते हैं

डाली भी लचक जाती है।

जब भी तेरा नाम आता है

मेरे हर तरफ एक खुशबू 

जाने किधर से फैल जाती है।

जय प्रकाश

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