काल काला ही नहीं उजला भी होता है सुनो।

अस्तित्व क्या है ?

सत्य है सचमुच कोई... !

या, बदलता परिदृश्य है, 

यह

"समय" के संग बदलता 

अनवरत,

हर एक रूप भीतर,

बन हमारा या तुम्हारा।


फिर "समय" क्या है ?

बदलते घटनाक्रमों के बीच 

"चुप बैठा हुआ, 

कोई समुच्चय अंतरों का"

या दूरियां नापी गई परिवर्तनों से।


सत्य है ! अस्तित्व यदि 

तो यह सतत गतिमान क्यों है?

घूमता और नाचता, 

इन ग्रहों और उपग्रहों पर।

बह रहा आकाशगंगाओं के 

संग संग नष्ट होता 

क्यों सकल संग।


फिर कहां अस्तित्व है ? 

वह!

जो बह गया, बदलते 

परिवर्तनों के साथ ही, मृदु तरल बनकर।


सोचता हूं, खोजता हूं, 

इस भागते धुंधले, भंवर को; देखता हूं;

ध्यान करता: 

उन अतल गहराइयों का,

तल नहीं, गहराइयां ही मात्र हैं जो

डूबता हूं डूब कर मैं 

निकलता हूं, शीर्ष पर 

"सच देखता हूं,"

"गहराइयों का शीर्ष ही आकाश है,

शून्य हैं गहराइयां, शून्य ही हैं शीर्ष सारे"

मध्य क्या है?  ढूंढता हूं।

"एक ही, हर ओर" इसको पा रहा हूं,

हूं यहां और हर जगह मैं 

एक सा संव्याप्त सबमें। 

बह रहा है काल 

मुझमें सरसराता बालुका सा।

परिवर्तनों में मैं छुपा कुछ देखता हूं

दुम हिलाते 

काल का

संजाल सारा ढह रहा है,

खुली आंखों देखता हूं।


बह रहे हैं रूप, आकृति, रंग, यौवन

शक्तियां अपरूप होकर नाचतीं हैं,

पुष्प खिल खिल बीज बनते जा रहे है

जीवन मरण का खेल अद्भुत चल रहा है।


मैं बना "अस्तित्व" सबकुछ देखता हूं

पर नहीं "अस्तित्व" को मैं जानता हूं।

फैल कर कितना बड़ा मैं हो गया हूं,

'ध्यान में इस धारणा के साथ मिलकर'।


एक अद्भुत दृश्य सच मैं देखता हूं,

कैसा समन्वय थाप के संग पैर की 

थिरकन पकड़ती, 

मुग्ध हूं !

इस ताल पर, 

इस अमरावती के नृत्य पर!


तिमिर-दिनकर, एक संग, एक साथ

पहली बार, देखा जिंदगी में,

रात दिन का भेद क्या है ?

आज हूं मैं समझ पाया।

परिवर्तनों का राज इसमें ही छुपा है!

काल, काला ही नहीं, उजला भी होता,

वह कौन है जो बीच में इनके समाता।


देखता हूं आज उसको 

पास से इतना खड़ा मैं,

मैं, 

मैं, नहीं ! 

अस्तित्व हूं !

जो 

एक सा 

रहता, 

सदा ही है, हमारा।

jaiprakas mishra

यदि आपने यहां तक पढ़ा और समझा तो अपनी कोई न कोई कमेंट, राय, सीख कुछ भी लिखे जरूर, जिससे मैं आपको कुछ आपके अनुसार  भेज सकूं।

आपका

जय प्रकाश मिश्र

भाव संक्षिप्त: संसार में मानव और मानवता का अस्तित्व ही निवर्तमान, अर्थात सतत बना रहता है। वह इस परिवर्तनीय और नश्वर दुनियां में कैसे बना रहता है इसको बताया गया है। समय और काल शून्य है, महत्व हीन है इस अस्तित्व के आगे क्योंकि यह उसका अति क्रमण करता है। समय की अवधारणा हमने ही की है। चेतना अपनी जाग्रत अवस्था में संपूर्ण सृष्टि के साथ एकाकार और एक बन जाती है। ध्यानावस्था का सामान्य व्यक्ति इसे महसूस नित्य करता है। शेष आप लोगो के लिए जगह दी गई है। बिचारे और बताएं मुझे भी कुछ आगे।

जय प्रकाश





 








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