दुष्ट दलन.करती है आई, सचमुच.की यह देवी है।

नारी के लिए सुना था वह कुछ ऐसे था, 

लिपि बद्ध करता हूं।

इस. सुंदरता… की देवी.. को 

तुम देख भ्रमित मत हो रे मन! 

इसकी.. हर क्रीड़ा…. के नीचे..

संसार.. छुपा है…. पीड़ा.. का।

पर जब देखा  और पाया तो,

वह सुख सरिता बन बहती है

इस जीवन की.. मरु भूमि में,

शीतल वाणी.. शीतल तन मन

शीतल.. उसकी.है हर चितवन।


मूक देखती.. रहती.. तुझको 

अपलक नयन बांधते हैं मन, 

राग.. रज्जु बंध… जाता है तूं

करता उसको प्रनत समर्पण।


जीत, विजेता को 

यह अबला,

मन ही मन 

मुसुकाती है, 

क्या है तन बल 

क्या है मन बल 

इन सब, की ही 

दुर्बलता में

खुद भी तो 

फंस जाती है। 


एक निमंत्रण नयन बंद कर

जब वह प्रस्तुत.... करती है

यह जग प्रस्तुत.. हो जाता है

जीवन सरिता बह.. उठती है।


सुख शांति लिए आंचल में.. वह

झलती रहती, निशि-दिन अविरल

हर एक चिनगारी.... जीवन की

बिनती रहती... जीवन भर यह  ।


झुक जाती है डाली सी वो

जब पवन थपेड़े बनते तुम,

तन जाती है.. तलवारों सी 

जब बात पड़े कोई तुम पर ।


अमृत है यह विष प्याली में

दीवार बहुत ही... पतली है,

नाजुक हाथों से... छूना तुम

बह सकती है मन की गति से।


विश्वास भूमि पर रहती है 

मर्यादा पोषण.... पाती है

कठिन तपस्वी है अति की

यह नारी सब पर भारी है।


आत्म समर्पण प्रेम रज्जु पर

जीवन.... का कर देती.... है।

अमृत बेलि जगत की है. यह

जग को खुद में...  ढोती है।


छल प्रवंचना की दुनियां में

सीना ताने.... रहती...... है,

दुष्ट दलन... करती है.. आई

सचमुच... की यह... देवी है।

जय प्रकाश मिश्र

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