बनफसा के फूल सा, जो महकता है, रात दिन।
कुछ तो, तेरे, मन बसा था,
कुछ था..., मेरे, मन. बसा।
बनफसा... के फूल, सा जो
महकता...., है... रात दिन।
"मन-उर्मियोंं" को
सांत्वना मत
दो अभी;
देखो न !
ये बौछार,
कैसी आ रही है।
कुछ.. कहीं..
अवशेष.. थोड़ा
रह गया होगा,
कहीं.. पर,
देख लो
एक बार...;
आखिर क्यों
बदलियां छा रही हैं।
देखकर…. वह
सोच… में
पड़ता… गया,
वर्षात की
उस फुलझड़ी के साथ,
चुप खड़ा बादल,
वहां क्या कर रहा था,
बारिशें…. घनघोर…
क्यों,
चंहुओर घेरे थीं उसे,
क्या सोचता
वह, उस तरफ
क्यों कुछ कदम
आगे बढ़ा था।
रुक गया था,
सोचकर कुछ
मर्म था! क्या
बीच में?
भांपकर जिसको
वहीं से वह नहीं आगे
तुरत पीछे मुड़ा था।
जिंदगी की प्यास
क्या इतनी अधूरी!
मिट नहीं सकती है
उसके कंठ तक।
पी गया जाने न कितनी
खुशबुएं वो, फूल की,
है खड़ा फिर भी वहीं
उसी हाल में,
मैं देखता हूं, आजतक।
जय प्रकाश मिश्र
भाव:
1. अच्छी स्वस्थ स्मृतियां जीवन को महका देती हैं। उसे सदा प्रसन्न और ऊर्जित रखती हैं।
2. मन और इंद्रियों का दमन एक मार्ग होता है पर सही मार्ग अच्छी समझ और सम्यक चिंतन है। इससे जो साम्य उपजता है ज्यादा स्थाई होता है। इसलिए अपना पुनरावलोकन अच्छे से कर आगे बढ़ना चाहिए।
3. आत्म विचार और आत्म मंथन ही बिरक्ती के उपयुक्त मार्ग हैं।
4. तृष्णा, वासना और कामना का अंत नहीं है। भोग उपरति नहीं दे सकता। असंयमी को इस आग में अंत तक जलना पड़ता है।
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