मन मसोसे बिना ही, थोड़ा मुस्कुराएं।
पांच पंखुरियाँ फूलों की, आप के लिए
पहली:
मेरे वहां से चलने के पहले
उसने धीरे… से कहा!
“कल फिर आना,
थोड़ा मिल बैठेंगे”
फिर उंगलियां घुमा लीं,
उसने, सारी
बड़ी मुलायमियत से,
अपनी,
मेरे सामने,“पीछे”!
पर उसकी आंखों के
फिरने से पहले
पलकें झुका ली मैने*
“तुम भी कल फिर आना”
शायद! यही कहा था मैने!
दूसरी:
तुम खेल लो कुछ पल
मेरे संग,
‘खेल ही है ये सब फैला यहां’
बाकी क्या बचता है
कुछ खट्टी मीठी यादें
संभालने को जीवन भर।
नहीं खेलोगे! मेरे साथ!
तो वो भी,
एक खेल ही होगा;
जैसे कोई बच्चा
खेलता हो चुपचाप
अपने ही संग।
तीसरी:
सुना है, सीरियस रहने से
बाहर,
कहीं टेंशन बन जाता है
भीतर।
सच्चा प्रदर्शन नहीं हो पाता
फील्ड ऊपर,
इसलिए
तुम अपना, पूरा दो मुझे
मैं भी अपना, पूरा दूं तुमको
“अटेंसन”
तभी तो ‘लोग भी’
देख देख हमें,
खुश होंगे,
आनंद बढ़ेगा,
मुस्करा-ए-गा
घर आंगन।
चौथी:
खोले पन्ने
किताबो के,
मिला भी उनसे,
बातें भी पढ़ीं,
फिर भी
जाने न, कितने
तट,
हैं छूटे, आज
तलक
अपने ही भीतर
सहमे, रूठे, पाया मैंने।
पांचवीं:
आओ एक महल
रेत की दीवार का
हम तुम बनाएं,
देर थोड़ी
सी ही बैठें उसमे,
पर,
“पर सुरखाब के” लगाएं।
नदी की ठंडी हवा के पास
थोड़ी देर बैठें
कुछ गुनगुनाएं।
तेज सूखी हवा,
उड़ाए जो रेत अपनी,
ढहाए दीवार उन नायाब
महलों की,
मन मसोसे बिना ही,
थोड़ा मुस्कुराएं।
Jai prakash mishra
भाव : पांचवी पंखुरी का
जीवन जटिल नहीं है। हमारी सोच और श्रद्धा उसे कठिन बना लेते हैं। महल सोच में होता है, आनंद और शांति उसमे हमारी अपनी रहती है। सुख अपनो का रहता है न की महल की दीवारों में होता है। जब परेशानियों का दौर आए तो भी उसे मुस्कुरा कर आपसी सहयोग से ही पार करना चाहिए।
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