ये दुनियां है, अपनी रफ्तार में, चलती है ये
तुम बन गए, सबसे, सुंदर,
फूल बन कर, खिल गए,
कुछ निगाहे छुअन
'उसकी' थी ही ऐसी..।
रंग फूलों में
‘गुलाबी’
उतर आया,
'थी, होठो की रंगत,'
ही ऐसी।
“पर” होते हुए भी,
पक्षी, न, उड़ा
थी दीदार की
लगन ऐसी।
महक गई
तबियत उनकी,
कुछ ऐसी तरबियत
थी उसकी।
असली गुलाब
सुर्ख हुआ
कागजी ने आग
पकड़ी,
उसकी निगाह
ऊपर उठी
तभी तो, ये
सहर हुई।
कहने को, तो
वो, है,
मदीना, रब का;
फिर भी जालिम!
पाते हैं, सभी,
‘केवल किस्मत अपनी।’
हां, ये वही दुनियां है,
उसी दुनियां से,
आए हैं लोग,
मुझे छोड़,
कुछ और भी होंगे,
बाकी खैरात
बटोरने की ही,
तो भीड़, है, लगी।
ये दुनियां है रे!
अपनी रफ्तार में, चलती है ये
किसी की कब कहां सुनती है ये,
तूं इसे देख ना देख, कब
किसी की परवाह करती है ये।
कठिन शब्द : निगाहे छुअन...देखने का अंदाज सुर्ख...लाल, सहर हुई... प्रातः काल की शुरुआत हुई, पर...पंख, दीदार...देखने की चाहत, लगन...दिवानगी, तरबियत... संपूर्णता में अच्छाई, मदीना... धार्मिक स्थल कामनाओं के पूर्ण होने की उम्मीद की जगह, जालिम.. ऐ मूर्ख, खैरात..मुफ्त खोरी की चीजे,
जय प्रकाश मिश्र
कुछ लोग अच्छे होते हैं, संसार में अपने नियम धर्म और मानवता का कठिन स्थिति में भी पालन करते हैं। उसी से इस जहां की खूबसूरती बनी हुई है, यह रहने लायक है। वर्ना केवल मांगने वाले और मुफ्त में सुविधा के लिए तो लोग क्या क्या और कहां कहां नहीं जाते। फिर भी मस्त रहें। दुनियां की अपनी भी व्यवस्था है। जो मुक्त कार्य करती रहती है।
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