मानवता को तार तार कर उसी को ओढ़ सोते हैं।
मिट्टी का बर्तन
एक बार मिट्टी के दो बर्तनों ने
साथ मिलकर,
आनंद और उन्माद के क्षणों में
खोकर,
घुल मिल,
सारी सीमाएं पार कर लीं,
उन्हें लगा जिंदगी ने सारी,
सौगात, पा ली।
कुछ दिनों बाद जब
मुड़कर पीछे देखा था,
समय बच्चा बना
उनके गोदी में हंसा था।
लता की नई बेल
हवा में लहलहाई,
अपने नर्म हाथों,
उनको पास बुलाई।
अभी अभी, शुरू हुआ था
उनके जीवन का श्रीगणेश।
खोजने पर भी कहीं नहीं था,
दिखता जीवन का एक भी कलेश।
अपने अपने नसीबों,
कर्मों में लिपटे ये लोग,
जिदंगी लड़ते खपते
जीते बिना किसी भोग।
खुश है अपनी दीनता में
ये लोग, लोगों से दूर,
अपनी बुनी दुनियां में
दूर सबसे, बहुत दूर।
खुश रहने की कोशिश
में सदा खुश रहते हैं।
जंगलों, खोंहों, रेगिस्तानों
टीन टप्पर संकरी गलियों में बने मकानों,
पॉलिथीन से बनी दीवारों के मकानों तले
गर्मी ठंड से बेखबर खुले मैदानों में पले..,
खुशहाल, बदहाल, हरहाल में होते हैं चुलबुले।
ऐसे लोगों को भी जो
कभी पूरी खुशी नहीं पाते,
खुशी की खोज में ही हैं
सारी जिंदगी गुजर जाते।
इन सीधे सरल लोगो को भी
जीने नहीं देते कुछ लोग
लेकर पतित इच्छाओं से
अपने पतित घृणित भोग।
मानवता की दुहाई यही कुछ
पतित लोग ही देते हैं
मानवता को तार तार कर
उसी को ओढ़ सोते हैं।
जय प्रकाश मिश्र
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