कौन इंतजार करे, गर्मी सहे,अंदर से बहे, पिघले
बार बार कहता हूं
लोगों से,
“जिंदगी” जी लो!
भागो मत
“गर” पास आए
सज कर यह “जिंदगी”
तो….
तुम भी;
प्यार से छू.. लो।
जिंदगी क्या.. है
गति, अंदर से बाहर…की।
निकलती, फैलती
बस पांचों इंद्रियों के
माध्यम से पनपती।
घोड़ा नहीं है,
की उस पर होकर सवार
तुम दौड़ते रहो,
बेखबर रह, सारा संसार।
वास्तव में तो यह,
“मैं से हम तक”
की दूरी थी,
इससे भी छोटी थी,
केवल अपने
“मैं तक”
पहुंचने की
चुनौती थी।
सीजना था,
हमें
अपने ही भीतर,
...भीतर… अपने ही रस में।
पकना था…,
“केवल”
बाहर के
दुनियां की
गर्मी से।
पर कौन
इंतजार करे,
गर्मी सहे,
अंदर से पिघले, बहे।
इसीलिए तो
प्रेम,करुणा
दया, मया नहीं जागती
भीतर।
शुष्क है,
तन, मन, हृदय,
अंतर तम।
जिंदगी ज़मीन पर रहती
तो ज्यादा अच्छा।
“मेहनत से छैलती, फैलती”
तो बहुत अच्छा।
लेकिन यह तो वर्टिकल भागी,
नेता, अभिनेता सभी बने सहभागी।
लगे तो सभी हैं,
तुरंत राकेट पर, चढ़ जाऊं,
शाम होते होते अरबपति बन जाऊं।
कितना सोच के
दो पैर, चलने
फिरने दौड़ने
को, दिए थे,
उसने।
पर यहां
मन के वेग से
भागती है जिंदगी,
पराजय देने को ही अपना
लक्ष्य और प्रगति मानती है जिंदगी।
फिर भी
जो “अपने में खिला”
भीतर से,
सुगंध "परिमल की" उसको
ही मिली “अंदर से”।
जय प्रकाश मिश्र
भाव:
मेहनत के जीवन में स्थिरता होती है। तीन पांच का बनाया या जुगाड जीवन को सही रास्ते से विमुख कर देते है। अपने कामों से खुश होने वाला ही खुश होता है, कामों का प्रायश्चित बहुत दुखदाई होता है।
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