तुम समय हो, है यही सच, देख लो
जिंदगी की नाव पर बैठा हुआ.. मैं
बह… रहा हूं काल…. के दुश्चक्र में,
कौन है.. जो खींच कर.. ले जा रहा
दुर्गम-भंवर के बीच आ..नजदीक से।
क्या कहीं कोई, मुझे जो जानता है,
क्या कहीं लिखा हुआ..मेरा पता है।
क्या छुपा है, जिंदगी की आड़ में,
मेरे…
कहीं कुछ ?
या मैं.. बहता…
यूं… ही…
अनर्गल…. जा… रहा हूं।
क्या जरूरत विश्व को मेरी यहां थी!
क्यों मुझे दुश्चक्र में... भेजा गया है?
कौन हूं मैं? क्या यहां, मेरी... महत्ता,
खोजता हूं, सोचता हूं, कह रहा हूं आप से।
देख कर इस,
काल नद की धार को,
अनवरत बहते हुए इस
समय के व्यापार को,
हैरान हूं! मैं देखकर,
“चल रहा….किस भूमि पर”
यह, चक्र इसका
सोचता हूं।
“मैं ही खड़ा हूं,”
भूमि बन “इस चक्र का ”
खुद देखता हूं!
मैं ही नहीं,
हम सभी ही हैं भूमि इसके,
चक्र जिस पर अनवरत यह चल रहा है।
क्या नहीं तुम देखते हो,
जो जहां जिस हाल में है,
समय को ले चल रहा है,
समय उस पर चल रहा है।
सोचता हूं,
निज पुत्र को ले,
पौत्र को ले,
संग अपने रास्ता
इसका बनाता जा रहा हूं
अनवरत मैं।
एक के संग, एक, बंधा है
डोर में, संबंध के;
खींचता है, काल को
अपने समय में, अंत तक;
क्या नहीं तुम देखते हो!
हम जहां जैसे खड़े हों,
समय हम पर बैठ कर ही
पग बढ़ाता जा रहा है अनवरत यह।
मृत्यु के पहले
थमा जाते हैं डोरी
पुत्र को,
पुत्र, अपने
पुत्र को,
क्रम यही तो सतत
चलता जा रहा है।
मिल सभी हैं
खींचते इस काल को
एक साथ लगकर,
हांफते, थक, चूर होकर।
“है यही सच” देख तो!
तुम ही समय हो चल रहे हो
भागते.... कितने... दिनों से।
इसलिए मैं कह रहा हूं,
"समय नद का भाग हूं, मैं"
काल का पहिया घुमाता
"काल हूं, मैं,"
एक ही सबकी महत्ता
जानता हू !
हर एक कण ही यह नदी है,
मानता हूं।
हम सभी मिलकर
"समय " बन बह रहे हैं,
कोई शीर्ष पर, कोई धार में
कोई किनारे, तली पर।
जो जहां है बस खुश रहे,
"वह" नदी है बहती हुई,
जो तट पे है ताली बजाए
वो "दुनियां में समसा" जा रहा है।
जिसको नहीं तट है मयस्सर
हाथ मलता जा रहा है।
कुछ तली में बैठे
कुचाली मंत्रणा
भी कर रहे हैं
मैं नहीं यह जानता
क्यों जाति मजहब कर रहे हैं।
वह बह रहा है,
तुम बह रहे हो
एक ही मंजिल सभी की
क्या नहीं सबको पता है।
हर नदी की धार
उसके जल कणों से है बनी,
कौन कण किस छोर पर हो
कौन निर्धारित करेगा ?
किसका कितना मूल्य होगा
नदी से पूछें अगर हम
क्या बताएगी हमे वो!
जो जहां जिस हाल में है
वह नदी है,
वह ही नदी है
विश्वास कर, विश्वास कर!
मिल गया उत्तर मुझे
इस जिंदगी का
हम समय सरिता के कण है
हों किसी भी छोर पर हम।
गति हैं हम, शाश्वत हैं हम,
हम “अनश्वर काल ही हैं।”
जय प्रकाश मिश्र
भाव: सांसारिक दृष्टि से हर मनुष्य अपना महत्व रखता है पर नैसर्गिक और समेकित रूप से सभी एक परम सत्ता के कार्य में ही लगे हुए हैं। स्थान या काम के प्रकार अथवा प्राप्तियों से हम सभी अलग हो सकते है, अनावश्यक भी लग सकते है पर मूल अर्थों में सभी एक ही सिस्टम के लिए पैदा होते है और जीवन जीते हैं। अतः सभी समान रूप से मूल्यवान और महत्व के हैं। जैसे नदी का जल होता है। सभी जलकण मिलकर नदी बनते और बहते है। कोई उनमें अंतर नहीं।
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