सच के सिवा और कुछ नहीं हैं, आईने”

सुनो.. 

“कभी झूठ नहीं बोलते.. 

'आईने'....

सच के सिवा 

और कुछ नहीं हैं, 

"आईने”।

तो क्या,

इस साफ आईने में 

मैं “अपना सच” 

देख रहा हूं।

फिर क्यों 

इस सच को..

तराजू में 

तौल रहा हूं।


कोई तो है, 

छुपा रहता है, 

मुझ अकेले में, 

मेरे ही भीतर,

चुपचाप बैठा 

मेरी ही मिल्कियत 

के अंदर..।


सही / गलत को 

खूब समझता, 

समझाता है,

इतना ही नहीं

सही को गलत, 

गलत को सही 

ठहराता है।

कभी इधर, 

कभी उधर, 

चुपचाप भगाता है,

इधर से उधर, 

पल में, 

विरोधाभास बनाता है।


मुझे शंका हुई, 

क्या मेरी मिल्कियत, 

बंट गई?

देखते ही देखते, 

कैसे ये सारी 

घटना, घट गई।

कम से कम, 

अपना तो सोल 

मालिक था, मैं!

ये सब, क्या हुआ, 

मैं न तो घर का 

न घाट का हुआ ?


इस आईने का 

"मैं", क्यूं मुझे 

ऐसे, देख रहा है,

लगता है मुझ पर, 

हर वक्त.. 

ये नजर रखता है।


कोई तो है 'ये' जो, 

मुझे अंदर से पहचानता है,

मुझे लगता है, 

मेरे अंदर का भी सब जानता है।

क्या! 

मेरा सच, "यह" जानता है, 

इतने में ही,

"उसने" खुद ही 

थोड़ा सर हिलाया,

मुंह से नहीं 

आंखों से किंचित 

मुस्कुराया।


जिसे मैं सारी दुनियां से 

छुपाये फिरता हूं,  

अपने ही उधेड़ बुन में 

लिए गुनता हूं, 

डर कहूं या 

लोकलाज!

कभी किसी को 

कुछ भी नहीं बताया, 

वो “सबकुछ” 

क्या इसके थ्रू,

पब्लिक डोमेन में 

गया।


मैं कुछ ज्यादा ही 

डर गया, 

शर्मिंदा हुआ, 

अपने भीतर ही 

झेंप गया।


भीतर का सारा अंतर्मन,

और अपनी सोच पब्लिक हो गई

सोचते ही,

बिना देर किए 

जल्दी जल्दी 

अपनी नकली पोशाक, 

नकली मुखौटा निकाला,

बिना देर किए,

कुछ भी नहीं 

देखा भाला।

जल्दी जल्दी, 

जैसे मैं नीचे से 

नंगा हो चुका होऊं,

कुछ ऐसा लगा।

सच में, पानी पानी हो गया।

जैसे तैसे उल्टा/सीधा 

पोशाक और मुखौटा 

पहनने लगा।

अपने नंगेपन को ढकने लगा।

पर यह क्या! 

मुखौटा ढीला

और पोशाक गीली लगी।


करूं क्या!

फिर सोचने लगा, 

नहीं नहीं 

पोशाक, वोशाक फेंको, 

सब बकवास है,

इस आईने वाले को कुछ 

नहीं पता, धीरज रखो,

तुम ज्यादा मत सोचो।


मैं फिर भी  सोचने लगा,

यह कैसे हो सकता है, 

वो "शीशे के भीतर बैठा आदमी"

मेरा सब कुछ जान कैसे सकता है,

अभी मैंने केवल उन अंतरंग 

बातों और घातों को

सोचा ही तो है।

वो सब अभी मेरे विचारो 

तक ही तो सीमित है।


उसने इशारों से रोका, 

मैं तुम्हारा

"अपना सच" ही तो हूं, 

विश्वास करो, 

तुमसे अच्छा, 

मैं तुम्हारा अपना

"मैं" ही तो हूं.

मुझसे अपनी बात 

पूरे विश्वास से करो, 

तुम मुझसे बिल्कुल 

भी न डरो।


मैं थोड़ा सहमा, 

देखा उसे 

एकटक, निहारा 

कुछ देर तक. 

धीरे धीरे मुझे वह कुछ 

अपना सा लगा,

फिर सोचा 

इससे सबकुछ कह दूं।

पर नहीं

उसके लिए 

"आत्मबल" भी तो चाहिए!

अपनी निजी बातें, 

जीवन के असमंजस, 

लज्जाजनक करतूतें, 

गंदले विचार, 

जाने अंजाने अपने ऊपर हुए 

और लोगों पर किए गए अपराध, 

आजतक कितनो के प्रति 

बाहर से छुपाया गया प्यार, 

अकेले में दिए गए 

कुछ लोगों को आश्वासन, 

गुप्त आदतें, 

आह्लादक अवसरों की बीती घटनाएं 

आगे की नियोजित निजी मुलाकातें, 

अपनी निहायत व्यक्तिगत कमजोरियां, 

अपने और लोगों के बीच हुए गुप्त समझौते, 

क्या क्या इसे बताऊं।

इतने में ही उसने कहा, 

ज्यादा मत सोचो, 

मैं तुम्हें तुमसे कुछ 

"ज्यादा जानता हूं,"

मैं "तुम्हारा सच हूं", 

मेरे साथ चलो,

मैं तुम्हे दुविधा से 

निकालूंगा, 

आदमी बना दूंगा,

क्विट;

जब चाहो 

कर लेना, 

मैं बुरा क्यों मानूंगा। 

आज तक तुमने 

अपनी ही तो की है, 

मुझे क्या कभी कहीं 

तरजीह दी है।


पर आज तो तुम्हारी 

प्रीप्लांड गुप्त मीटिंग है, 

चिर अभिलसित भी है।

ज्यादा क्या कहूं,

तुम नहीं समझते, 

तो लो बताता हूं, सुनो।

मैं ‘सब’ जानता हूं,

प्रिय कैसा भी हो, 

प्रिय ही होता है।

स्निग्ध, श्यामल, 

कपूरी, कोमल 

या 'ददरा'! 

कुछ भी अर्थ 

नहीं रखता,

जब मन 

मिल जाए तो

तन की गाढ़ी 

श्यामलता क्या कालिमा भी 

जामुनों के चिकने मुलायम, 

रस टपकाती, ललाई छलकाती, 

मिठाई सी लगती है।


कुछ अजीब सी कसैली 

बोल चाल होते हुए भी 

पवित्र मन, 

सुरभित तन, 

यशस्वी पृष्ठभूमि 

दिखती है।

आगा पीछा 

सबको भुलवा देती है। 

लुभा लेने पर तो 

लोभी बचता ही नहीं।

सुंदर, असुंदर तो 

नज़रे देखती है।

दिल तो कुछ 

और ही खोजता है।


स्निग्ध, मुलायम 

और गोरापन

की मुहताज कब रही 

अंदर की सादगी।

बेदाग, गहरी नीली 

आंखों की चितवन,

को कौन पूछता है, 

अगर उसे शील की

सुशील छाया चाहिए।

कोमल की दरकार 

और खुरदरे से इंकार

कौन करे, 

जब अपनापन 

मिल जाए।


पर छोड़ो ये सब बातें

आज तो तुम्हें मिलना है न!

एक मन-रंजित 

द्युतिमय प्रकाश मिश्रित 

अंधकार से।

खाली पड़े, 

अपने में बिखरे, 

सूने, नियति से 

"श्रापित" पर

 "मन के गंगाजल" से,

पायदान नीचा कितना भी हो,

झाड़ू , गंदगी, गरीबी, हेय, 

बुराई, छुआछूत, पाप, ताप

कुछ भी हो

पर इनके बिना जीना 

और इनमे जीना

दोनों क्या संभव हैं।


पर तुम्हें क्या लेना देना 

दुनियां से,

तुमको तो,

खो-जाना है, 

पा लेना है, 

लय विलय होना है

संविलयित हो जाना है,

बाहर, भीतर, अंदर 

से अंदर तक, 

आईने की तह तक

मनतरंगे मिल एक होंगी तुम्हारी।


आह्लाद उठता है न भीतर, 

जानता हूं। 

क्योंकि मैं ही तुम्हारा मैं हूं।

फेनिल-कोमल 

करपाश-बंध,

नत-नयन निमंत्रण, 

तरल-स्पर्श, 

तुम्हें अपने में 

सोखतीं-समोती

वो सूखी पर 

गहरी से गहरी होती 

रम्यमिष्ट- लोलदृष्टि, 

थोड़ा सकुचाई सी।

डोलन आडोलन करते 

मन-कंदुक के गतिमय 

छंदलय मिश्रित आश्रय-स्थल,

क्या क्या छुपाओगे मुझसे,

आखिर "एकांत और नजदीकी" क्या है,

जिसके लिए कोई कुछ भी करता है।

आत्मविस्मृत 

समर्पण और 

तत्मय-स्मृति 

कितनी पेंगे लेता है 

तुम्हारा मन।


पर इसमें छुपी 

पश्चाताप के अग्नि की तीखी 

चिंगारियां भी तो देखो।

समय के पट पर जो 

सत्य लिख जाता है।

वह अमिट और अभेद्य होता है।

तुम्हारे लिए ही, नहीं 

बच्चों के बच्चों तक।


क्या चाहते हो, 

श्वेत पृष्ठ पर काली लिपि 

या काले पृष्ठ पर सफेद लिपि 

लिखी जाय, तुम्हारे लिए।

चुनाव तुम्हारा है, 

तुम कर्ता हो 

मैं दृष्टा हूं

हां, तुम्हें सच बताना 

मेरा काम है, 

मैं संकोच भाव पैदा करने तक 

सीमित हूं,

हाथ नहीं पकड़ सकता तुम्हारा।

फिर भी कहता हूं, 

शपथ लेकर,

तुम मेरे साथ चलो 

मैं तुम्हारा सत्य हूं।

मैं तुम्हारी वासनाओं पर विजय 

दिलाने वाली आत्मशक्ति हूं, 

मैं सहस्त्ररश्मि महासूर्य की 

जीवंत किरण का 

आत्मरस हूं। 

मैं तुम्हारे मन की 

गहराइयों में छुपे दुर्दमनीय 

विकट अंधकार का साक्षी भी  हूं। 

मैं दुर्दांत 

विकट शत्रुनाशन 

में समर्थ हूं। 

तुम मेरे साथ 

मेरी दुनियां में 

आ सकते हो 

यहां सुगंधित, 

सौंदर्यमयी नवयौवनी 

रसशक्ति की पवित्रधूम 

एकसाथ मिलकर, 

कल कल करती 

सरिता जल बन 

सहज अप्रतिहत 

सतत बहती रहती हैं, 

यहां की भूमि में 

तृप्ति, आरोग्य, संतोष, 

आनंद और उत्स बसते हैं।

जय प्रकाश मिश्र



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