ये दुनियां आप ही बनती, बिगड़ती, डोलती है।

"उसकी तन्हाई।"

उम्र की झुर्रियां का... सच 

तो मैने देखा ,

पर "कहां से" रो रहा था वो, यह तो

मैने नहीं देखा ।

यह उसकी अपनी ही दास्तां थी 

या सबकी 

जो देखा मैने!


आंखों की बूंदें सरक, चेहरे के

नीचे झुर्रियों में भर रहीं थीं

देखने में आंखें "सख्त थीं" 

अब भी, 

पर कुछ ज्यादा 

नम… थीं।

बोली "फंस गई थी कहीं" 

भीतर उसकी,

कुछ देर में, रुंधी सी, बाहर आई,

रुआंसा होने को ही था वो,

पर उससे भी पहले.. बोल उठी, 

"उसकी तन्हाई।"

यद्यपि वह सुखी हम सबसे ज्यादा था,

यह बात तो मैं पहले से ही जानता था।

भाव: दुनियां का सबसे बड़ा कष्ट और संताप अकेलापन, अपनो से बिछुरन होता है। तन्हाई में जीना आदमी को अंदर से तोड़ डालता है। घुटा हुआ जीवन मात्र बचता है।

दुनियां की सीमाएं

यह अपरिमित सी दीखती दुनियां

कभी कितनी बड़ी थी,

आंखों में समाने को कौन कहे

किताबों के पन्नों तक भरी थी।

अच्छा है की हाथों में पाने और 

पकड़ने की सीमाएं हैं, 

फिर भी ये सभी के सपनो से भी आगे

निकल जाती हैं।

यादों के कोनों को मुन्नौवर करती, 

मन और उर में भी, भर समाती हैं।


नहीं पता था तब, दुनियांदारी की

ये दौड़, समय की डोर से भी, बंधी थी,

समय का, किसे पता था, 

यह तो सामर्थ्य से भी, बंधा होता है।  

पर सामर्थ्य किसी भी काम का नहीं होगा, 

ऐसा भी समय आता है!

कहां पता था,

तब,

मुझमें ही ये सारे, 

और मुझमें ही ये सारे होते हैं, 

ये तो अब आया समझ।

भाव: हर आदमी को दुनियां बचपन और जवानी में बहुत बड़ी लगती है और रखे नहीं समाती। मन भरता ही नहीं दौड़ मची रहती है। बाद में पता चलता है की दुनियां उसी तक, उसी में, उसके स्वस्थ होने तक बचती है।

मेंरा घर

मेरा घर, 

तेरे घर से, 

बहुत ही करीब था।

बस हालात हैं 

की, ये दूरियां, 

मिटती नहीं।

ये सच है, 

तूं मुझे चाहता है 

आज भी,

पर लोग हैं 

जो राह से 

हटते नहीं।


करीब कौन किसके 

कब कहां कितना रहा,

ये राहें जानती हैं, सब, 

नहीं पर बोलती हैं।

तूं अपनी राह चलता चल 

मुसाफिर, शुक्रिया 

ये दुनियां आप ही 

बनती बिगड़ती 

डोलती है।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: यह विश्व सतत आपेक्षिक रूप से परिवर्तन शील है। सारे ग्रह नक्षत्र अपने खिलाफ हों पर अधिक समय नहीं रह सकते। परिवर्तन होगा और आप अच्छा महसूस करेंगे ही। विचलित अपने काम में लगे रहें।


Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता