पास आई, बैठी, बोलीं, तो कुछ नहीं

जिंदगी मंजिल है कोई

हां! वो कोई 

मृगमरीचिका नहीं, 

"मंजिलें" ही 

थी मेरी…..!

रास्ता बनती गई… 

अहसास बन

ढलते हुए

कदमों तले मेरे, 

क्षितिज सी चलती रहीं।


पहुंच जाऊंगा, 

पा जाऊंगा!

दौड़ता रहा,

शीत, घाम, वर्षा

से बेखबर,

कड़कते बादलों, 

कड़कती ठंड के बीच

दायित्वों को भी, 

अनदेखा करता

जिंदगी से बेखबर।

भागता ही रहा, जिंदगी भर।

पर क्षितिज हो, या

इच्छाओं की मंजिलें,

दूर होती ही जाती हैं, 

पास और पास 

जितना जाओ इनके।

इसी लिए दूर रहो 

ज्यादा पास मत आओ इनके।


सोचता हूं कभी इन सारी

मंजिलों से बेपरवाह क्या मस्त जिंदगी थी।

जो कुछ घर गांव में मिलता

उसी के साथ, कितने अच्छे से यह पली थी।

ये वही मंजिलें हैं, जो कभी

नीचे पड़ी थी… कदमों में;

मुझे दिखती ही नहीं थीं।

एक दिन अचानक उठ कर 

कहने लगीं,

ले चल मुझे किसी ओर तूं,

मैं ही दुनियां हूं, तेरी।

मंजिल बन, तुझे सरपट

दौड़ाऊंगी, 

अपने साथ तुझे जीवन के 

सारे मजे चखावाऊंगी। 


लेकर चला जिस पल उसे

‘कुछ दूर पर’ दिखने लगी।

देखते ही देखते मैं हुआ

पीछे!और मेरी मंजिल

मेरे आगे, मुझे,

‘लेकर चलने 

लगी।’


अब क्या कहूं! वो पहली छोटी 

सी मंजिल, मेरी अरमान 

बन गई, 

नहीं, इतना ही नहीं,

वो तो मेरे सिर पे चढ़, 

मेरी ही, मेहमान बन गई।

हंसने लगी, लो, थोड़ा

लुभावनी भी लगी।

देख कर चहुंओर ये

‘तूं तेज चल’ कहने लगी।


कुछ कर की, तूं, आगे निकल

कैसे भी कर, ये रह बदल,

किसी शॉर्ट कट की

खोज कर।

संग उसके दौड़ता,

दौड़ता, मैं थक गया।

मैं सो गया। 

फिर देखता हूं

नींद में, मैं.... 

दौड़ता ही रह... गया

रात भर उस स्वप्न में,

अब मिलीं, अब आ मिलीं

देखते ही देखते 

तारों में चमकने लगीं।

दिपती रहीं उन घनघोर अंधेरों के पीछे, 

मैं भागता रहा हांफता, दांफता उनके पीछे।

जब खोजता, मैं थक गया,

निकली अंधेरों से,

पास आई, बैठी, 

बोलीं, तो कुछ नहीं,

मैं देख कर विदेह हुआ,

अपनी मूर्खताओं पे।

क्या कभी क्षितिज

हाथ आता है!

क्या इच्छाओं का जाल 

कोई पार पाता है!

इतनी छोटी सी बात पर

ये जिंदगी बीत गई,

बाहर देखा 

तो सचमुच शाम हो गई।

जय प्रकाश मिश्र

भाव : जीवन कामनाओं और इच्छाओं का सुंदर खेल है जो खत्म नहीं होता जीवन खत्म हो जाता है। तृषित मन तृप्ति का आनंद नहीं पा सकता। संयम, संतोष, आत्म विचारण, अनुभूतियों का विश्लेषण कर ही संसार को जाना जा सकता है और अच्छी तरह जिया जा सकता है।

"जिंदगी और मैं"

हर कदम रास्ता नपता था

या कामयाबी मेरी,

लोग कहते थे अब दूर नहीं 

मंजिल है तेरी।

खुश था मैं भी 

सब सुन सुन कर

बात इतनी ही थी 

जो कहनी थी,

मुझे तुमसे।

अब आप खुद 

गुनगुनाओ

आगे इससे।

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