खिलता हुआ कोई फूल… मैंने कभी देखा नहीं था
आंखे बंद थीं
मेरी…,
मैं….,
स्वप्न के
आगोश में था,
रात्रि में…
खिलता हुआ
कोई फूल…
मैंने कभी
देखा नहीं था।
‘मूक’ था, मैं,
‘मौन’
मेरे
पास ही
बैठा हुआ था,
चांदनी….
किस ओर
जाने देखती.. थी,
चांद…तो
सहमा हुआ
नीचे पड़ा था।
क्या हुआ,
मैं क्या कहूं!
एक बेल छोटी,
थोड़ी लम्बी,
आ गई
सपने के भीतर।
सांवली…
शायद वो
कुछ थी,
कलियां लगी थीं
आंखुरों पर।
खिलने लगीं
मेरे सामने,
मैं, देखता
बस चुप
खड़ा था।
दूधिया हंसी
हंसने लगीं,
किलकारियां
करने लगीं
मैं घुल गया
उन परिमलों
की गंध संग
आकंठ, अन्तस
स्वत्व में
डूबा हुआ सा।
जय प्रकाश मिश्र
चाहत, होती होगी, कितनी
उन, हाथों में, अधर, दृगो में
जो, बैठी, जग बुनती होगी
जाग अकेले…एकांतों.. में।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: जीवन एकांतों में, गहन ध्यान में, कल्पनातीत गहराइयों में, अनुभव और अनुभूति के शिखर पर आनंद में लहरें ले सकता है। मैंने यह सत्य स्वयं अनुभूत किया हुआ ही लिखा है।
एक मां जब इस जग के भविष्य को अपने गर्भ में धारती है, 'समय का वह अंतरा' किन भावनाओं के साथ बिताया जाता होगा। उम्मीदों के पालने में मां खुद भी झूलती है और भविष्य को भी झुलाती है।
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