सृष्टि रचना ही नहीं मेरी परीक्षा,

लो वारती हूं 

साज सारे 

मैं

तुम्हारे ही लिए अब।

बो रही हूं 

फूल सारे,

पास में जो 

थे हमारे।

साथ में 

खुशियों के तारे, 

आज तक 

जो कुछ 

मेरे थे,

ख्वाब में,

रंग, खुशबू, 

ताज़गी 

सारे के सारे।


समझती हूं, 

जानती हूं,

धारती हूं 

शक्ति सब।

मुक्तता की 

देवि का, 

दीवट, कभी

मैंने छुआ था।

बंधनों के ‘बंध’ 

की सारी महत्ता

सोचकर, 

खुद बंध गई हूं

बंधनों में साथ तेरे, 

बन गई हूं आज 

मैं तेरी वधू अब।


हर दृष्टि का 

तुम आवरण मेरे लिए हो,

यह सौर मंडल आज

मुझमें बंध गया है।

सृष्टि रचना ही

नहीं मेरी परीक्षा,

सभ्यता के मूल की

वह मौन स्वीकृति,

इन बंधनों के बल

से मुझको प्राप्त है। 

जय प्रकाश

भाव: (प्रथम स्टेंजा) जब भी हम किसी भी दायित्व बोध का वरण करते हैं तो अपने बहुत सारे स्वछंदताओ को छोड़ते भी हैं। अपनी पसंद में उस अपने पसंद के प्राणी की पसंद को मिला कर ही आगे बढ़ते हैं। फिर उस बदले नए जीवन में सुख समृद्धि के लिए अपना सब कुछ लगा देते हैं।

(द्वितीय स्टेंजा) जब हम अपनी प्रसन्नता से कोई चयन कर लेते हैं तो अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति समर्पण करना चाहिए। अपनी स्वतंत्रता को संयमित करना चाहिए बेशक इसके पहले हम जैसे भी रहे हों।

(तृतीय स्टेंजा) युग्म बन कर, एक होकर हमारी शक्ति और सामर्थ्य बढ़ जाती है। योग या जुड़ना एक दैवीय प्रकिया है इससे हम सृष्टि रचना और उसमे बदलाव में समर्थ होते हैं।

खास आपके लिए एक सुंदर गीत 

उठती हुई तरंग हूँ,

खिलती हुई कली।

घिरती हुई घटा हूं मैं,

मचलती हुई नदी।


मत पूछ तू मेरा पता

किस राह की में राहगिर

छंटती हुई बदली हूँ मैं

हर बाग मेरा रास्ता।


किस देश मे बसती हूं मैं

है कौन मेरा यारे दिल,

मत पूछ अपनी क्या कहूँ

बस आबाद रह! आबाद रह!


किस चमकती किरण ने कब

मेरा किया था अपहरण,

वो सुबह थी, या शाम थी 

मुझे ना पता, तो ना पता।

           जय प्रकाश मिश्र

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