मां से ज्यादा अपना कोई नहीं।
ये धरा,
जितनी.... बड़ी हो,
सोचो, समझो,
कह सको;
कितनी बड़ी हों इसकी नितामतें,
तैरो, भीगो
रख सको।
फिर भी सच सुनो !
गर मुझे कहीं
जमीं मिली “अपनी;”
इस दौरे-जहांन के
बियावान में
पहली बा......र !
तो.... वो..
“मेरी अपनी मां” थी।
एक अहसास बन
मैं घूम रहा था,
न बोल सकता था,
न चुन सकता था।
इस दौरे जहान में तेरे,
मैं बिल्कुल अकेला था।
परछाइयां भी मेरी
तब नहीं थीं, मेरे पास
फिर भी किसी ने मुझे
पहचान लिया,
सच, उसने प्यार से
अरमानों की पेंग बढ़ाते
हुए, मुझे थाम लिया।
मुझे सपनों में चूमा
जिसने पहली बार
मैं आ चुका था दुनियां में
जिसने जाना ये पहली बार,
वो “मेरी अपनी यही मां थी।”
वो क्या थी!
कौन कहेगा इसको;
ये, मैं ही, बता सकता हूं तुमको,
केवल; मैं ही, क्योंकि
“वो मेरी अपनी मां.. थी।”
मुझे देखते ही आंचल
भारी हो जाते थे उसके,
मेरी प्यास की आहट
के पहले
न जाने कैसे,
अमृत उतर आता था सीनों में उसके।
आंखों से दुलार बहता था,
वे हाथ मेरे.... झूले... थे,
वो परी थी ही कुछ ऐसी
जिसमे....
मेरे सारे ख्वाब पलते थे।
रिश्ता ! मत बोल ! इसे
रिश्ते में मत तौल! उसे
मत कर शर्मिंदा मुझे।
अरे! वो
“मां है, तेरी हो या मेरी,”
रिश्ते रिस जाते हैं,
दुनियां बनाती है इन्हें,
थोड़ा सोच तो
उसने बनाया है तुम्हें।
“तूं जिगर है उसका”
तूं, उसकी थाती है,
तेरे रोने से वो
मोम सी पिघल जाती है।
“मां का रिश्ता कह कर” मां की
इज्जत कम मत कर,
केवल एक ही सच है
तेरी जिंदगी का,
की, तेरी जिंदगी
तेरी मां की ही बुनावट है।
उन्होंने
उम्मीद बना के
तुझे पाला था,
नौ महीने, हर पलछिन
तुझपे उनका साया था।
अपने अंगों का रस
तुझे हर रोज पिलाया था।
सुन सके तो सुन
उड़ती कल्पनाओ के पर
पर तुझे सुलाया था,
सोते, जागते, बैठते,
उठते क्षण क्षण तुझे
दुलराया था।
तूं, तेरा मस्तिष्क,
तेरे हर अंग
उन्होंने
अपने अंग अंग से
निकाल कर
तुझे बनाया था।
तूं अलग होगा, उनसे
पर वो जीवन भर
कभी अलग नहीं हुई
एक भी क्षण तुमसे।
तुम उन्हें पहचानते होगे
लेकिन वो तुम्हे जानती है।
तुम उसके अंश हो,
थे, और
रहोगे सदा
वो यही मानती है।
इसलिए दुनियां का
एक ही नैसर्गिक सच है
वो है
मां की सत्यता
'वह तेरी मां है'
बाकी कहे सुने, बनाए
अपनाएं हुए होंगे सारे सच।
‘तेरी मां से’
नजदीक ‘तेरा
और कोई नहीं हो सकता,'
जीते जी मां बेटे के बीच
कोई और नहीं हो सकता।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: पूरे ब्रह्मांड में अपना अस्तित्व शिशु को अपनी मां के गर्भ में ही, जगह के रूप में सर्व प्रथम मिलता है। वह उसे प्रेम, दुलार, स्नेह, उम्मीद और अहम भर कर पालती है। अपनी उम्मीद अपने बच्चे में पहनती है।
मां का रिश्ता, रिश्ता नहीं, एक सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। हमारा संपूर्ण अस्तित्व ही मां के गर्भ में तैयार होता है। शरीर, मन, दिमाग सब उन्हीं के शरीर से हमने लिया है। मां से अधिक अपना दुनियां में और कोई भी नहीं।
जय प्रकाश मिश्र
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