कौन खुशी के चक्कर काटे
मैं क्या हारूं !
मुझपे है क्या !
वो…. हारे..
जिस पर है.. “सब कुछ”।
मैं तो “जीता”
जीता हर दिन,
मेरा तो
हर दिन ही
शुभ है।
निर्बल, कमजोर, साधनहीन का जीवन अपने अभाव में भी अति संपन्न लोगो की अपेक्षा अनेक मायनों में भय रहित, निर्द्वंद, मस्त और चिंता रहित होता है क्योंकि वे आधार पर ही होते हैं।
भय, और अवनति का डर उन्हे नहीं होता। वह तो नित्य विजित ही जीवन जीता है क्योंकि हारने को उस पर कुछ विशेष नही।
उसके लिए कोई दिन शुभ अशुभ नहीं। उसकी मेहनत से उसका हर दिन शुभ बनता है।
समय से पहले,
समय के बाद…,
सारी लड़ाई…
इसमें.. ही है।
“जीत” जीत
सब पड़ा ही रहता
सारी लड़ाई
“जीत ही” तो है।
समय की नोक पर या समय के सापेक्ष ही हर चीज महत्व रखती है।
आवश्यकता के समय सहायता, सामर्थ्य, धन का मिलना महत्व रखता है उसके बाद वही चीजे महत्वहीन हो जाती हैं।
लड़ाईयां चाहे इज्जत के लिए या संपदा के लिए हुई हों उनमें जीतना महत्व का होता है, जीतने के बाद उन बातों को और संपदा को सभी भूल जाते हैं।
अनेक बार युद्ध मात्र जीत के लिए होता है न की हानि लाभ के लिए, जीत के नशे के आगे सब कुछ बेमानी होता है।
अपने अपने देव.. सभी.. के
देव नहीं क्यों…. लड़ते.. हैं,
हम क्यों उनके लिए झगड़ते
क्या हम उनसे अच्छे…. हैं।
आज मानव धार्मिक कट्टरता में आकंठ निबद्ध है। क्यों नहीं ये देवता या विभिन्न धर्मों की मान्य शक्तियां आपस में लड़ती, झगड़ती।
क्या मनुष्य उनसे ज्यादा, अपने को ज्ञानी समझता है, जो उनके रक्षार्थ आपसी सौहार्द बिगाड़ता रहता है।
कौन खुशी के चक्कर काटे
मुफ्त उदासी… मिलती.. है,
साथ छुड़ाए नहीं.. छोड़तीं..
खुशियां..नटखट.. होतीं हैं।
“fondless is the king” संयमित जीवन ही सुख का आधार है।
खुशियों और सुखों के पीछे दौड़ और उनका फल भी क्षणिक/ नश्वर ही होता है।
जय प्रकाश मिश्र
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