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Showing posts from March, 2024

पेट भर जाने की सीमा जानती है, नन्हीं चिड़िया

आज आप यह पूरी कविता पढ़ें,आप को अच्छा लगे मेरी पूरी कोशिश है। भावार्थ अंत में अंकित है। मैं!  मैं चाहता हूं  ‘कल’ बुनुं।     सुंदर, सुगढ़,  अनुपम बुनूँ। सत्य के रेशों  को चुनचुन,  प्यार.. की..  चादर.. बुनूं। रंग कैसा, मैं चुनूं,  यह सोचता हूं, डूबता हूं…,  रंग सारी प्रकृति,के मैं। रंग धानी  खींचता है, पास मुझको, पुष्प बन  मैं ही खिला हूं  गोद उसके। रंग.. धानी..  संग.. केशर  का चुनूं…।  कल डूब जाए  खिलखिलाता   समय सरिता,  आज को  ऐसा बुनूं। बच सके  जो पीढियां  आने को हैं, अभिशाप के  हर दंश से  आगे बढूं।  बस यों समझ  ज्यों पत्तियां हैं,  झिलमिलाती,  प्रात में स्वर्निम  किरन संग झुरझुराती। मचलती  उन्मुक्त होकर,  पवन के संग। झरकर….  …झराझर, सहज निर्झर, …द्वार तेरे  नीम ऊपर। सत्य.. का ही  गीत तुझको  वो सुनातीं। प्रेम का ही  गीत हैं वो गुनगुनातीं।   सोचता हूं  मैं बुनूं,  कुछ आज ऐसा, ओढ़ जिसक...

पुष्प बन तूं ही खिला है गोद उसमें।

किसी ने पूछा की आप इस उम्र के पड़ाव पर क्या चाहेंगे? मैंने कहा: मैं!  मैं चाहता हूं  कल बुनुं। (सुंदर भविष्य)  सुंदर, सुगढ़,  अनुपम बुनूँ। सत्य के रेशों  को चुनचुन,  प्यार.. की..  चादर.. बुनूं। मेरी इच्छा है कि मैं सत्य और प्रेम के ताने बाने लेकर लोगो और अपने लिए सुंदर कल्याणकारी भविष्य को समेटती आकर्षक चादर बना पाऊं। रंग कैसा, मैं चुनूं,  यह सोचता हूं, डूबता हूं…,  रंग सारी प्रकृति, मैं। रंग धानी  खींचता है, पास मुझको, पुष्प बन  मैं ही खिला हूं  गोद उसमें। प्रकृति का हरा रंग जीवन का प्रतीक है। क्योंकि सारे पुष्प, फल इसी से पोषण पाते है, और सृष्टि गतिशील रहती है। यह हरा धानी रंग सर्वप्रिय होगा। रंग.. धानी..  संग.. केशर  का चुनूं…।  कल डूब जाए  किलकिलाता   समय सरिता,  आज को  ऐसा बुनूं। बच सके  जो पीढियां  आने को हैं, अभिशाप के  हर दंश से  आगे बढूं।  समृद्धि का रंग धानी जो सुवर्ण मिश्रित हो जिसमे आने वाला कल किलकिलाए, खुश रहे आज कुछ ऐसा किया जाय। आने वाली जेनरेसन ज...

सत्य के रेशों को चुनचुन, चाहता हूं कल बुनुं

समय को जब आग पर मैं सेंकता हूं फुलझड़ी कोई कही तब एक पाता शब्द का परिधान उसपर मैं चढ़ाकर एक कविता हूं तुम्हें मैं भेज पाता। आपको अपना समझ कर भेजता हूं राज अन्तस के मैं सारे खोलता हूं। डूब कर तुम, संग मेरे बह सको हृदय का रस संग इसके घोलता हूं। शब्द जब तब निकलते है, फिसलते है, पकड़ता हूं दौड़ कर तेरे लिए मैं,  तौलता हूं, वजन इनका बार बार  तब कही लेकर इन्हें मिलता तुम्हे हूं। तुम पढ़ो या फेंक दो, फूल तो खिलते रहेंगे, पेड़ जो उपवन लगा हो या जंगलों के बीच हो। महकना है काम उसका रोज खिलना काम उसका तोड़ लो तो तोड़ लो छोड़ दो तो छोड़ दो। मैं.., मैं चाहता हूं कल बुनुं  सुंदर, सुगढ़, अनुपम बुनूँ  सत्य के रेशों को चुनचुन,  तेरे हाथ का.. कंगन बुनूं। जय प्रकाश

हाय इन नस नाड़ियों में, नदी कोई बह रही है।

  यह…..  उजाला नहीं; धू…प, है तेरी! उजा..ले…..  कुछ और…  होते… हैं। ‘जो’ आंखे  बंद होती हैं, तेरे आने से..। उसके आने  से खुल…ती हैं। भाव: जीवन सहज और सरल प्रवाह है, हमारा अहम इसे विक्षुब्ध कर देता है। लोक मानव अति से दूर सुख अनुभूत करता है। अरे वो….वो,  घुप अंधेरों… से रात भर,  लड़…ता है। तूं,… तूं.. तो.. , बस, छांव से  ही भिड़ता है। भाव: जन सामान्य अपने जीवन में जीवन के यथार्थ से लड़ कर जीता है, वह वास्तविकता को झेलकर आगे बढ़ता है, जब की कुलीन मात्र आन बान और शान के लिए संघर्ष करता है। वो…उजांस हैं, स्पंदन है, कितनी दू…र से  सहलाता है सबको। एक तूं,  तूं तो सदा…बस सबके सिरों पर  चढ़ा रहता है। भाव: जीवन का वास्तविक संघर्ष अपने लोगो, अपनी प्रवृत्तियों से प्रियता से लड़ा जाता है। उसमे धैर्य, अपनापन, विश्वास रहता है, जबकि अहम और नाक की लडाई मूर्खता पूर्ण होती है। नहीं, नहीं. नहीं..,  थोड़ा दूर रह.., मुझ..से, तुझमें झुलस है, तेज....है.?, गर्मी है... बहुत कुछ होगा..?  सब बेकार है, जला देगा तूं,  मेरे  सुकुमार पौधे...

खिलने दो, मुस्कुराने दो, जीने भी दो इन्हें,

खिलने दो, मुस्कुराने दो, जीने भी दो इन्हें ये डालियां…  जिन पर नहीं  अब…. पत्ते… एक.. हैं, सूखी लगेंगी तुमको… मगर  फूलने को हैं। (समाज में जब शून्यता आ जाए, तो कुछ भीतर बड़ा पलता है, आंतरिक शांति और एकांत विशेष मनन और परिणाम का आश्रय होता है) जब हरी…  थीं कोपलें… वर्षात…..  यहां थी…। सहते… हुए  ये शीत..  विकल..  झूमने… को हैं। (जब लोक निधि का सही उपयोग होता है तो चहुओर समृद्धि फैलती है, पर समाज के किसी भी वर्ग में अत्यधिक कष्ट या परेशानियां अनावश्यक अशांति होती है तो यही विप्लव कारी होती हैं।) खिलने दो..,  मुस्कुराने दो..., जीने भी दो... इन्हें, देखो न, ज्वालामुखी कोई फूटने को है। ( समाज में बराबरी, और अवसर की समानता न होने से ही क्रांति का जन्म होता है। ) मत बंद करो  रास्ते,  झोंके हवाओं के,  बच्चे हों या बूढ़े  जिम्मेदारी  सभी के हैं। (हर वर्ग के वृद्ध और बच्चे हमारी सम्मिलित जिम्मेदारी होते हैं वे समाज की धरोहर और भविष्य होते हैं। ) आने दो  थोड़ी धूप  आंगन में भी इनके, रखने को पांव,  चलने को जगह,...

सच सुने तो, मैं कुछ कहूं,

सच सुने तो, मैं कुछ कहूं, कुछ जगहें, आधुनिकता  के लिए बंजर होती है। पर “इच्छाएं”,  तरह तरह की हां, हां मन की! यहां भी उठती हैं। (ग्रामीण परिवेश, अपनी संस्कृतियों और अदबो लिहाज में रहने वाले लोग, उन्मुक्त आधुनिक जीवन जीने वालों के लिए हेय ,नीचे दर्जे के माने जाते हैं, पर इंस्टिंग्ट सब जगह सबमें समान होती हैं) पर, न पनपती हैं,  न आगे बढ़ती हैं। हां.. आप सही हैं, भीतर.. ही भीतर.. कसकती… हैं। (इन जगहों पर यहां के लोगों में भीतर उन्मुक्तता के प्रति एक कसमसाहट रहती तो है। यहां सामाजिकता, और दायित्वबोध हर क्रियाकलाप पर अंकुश का काम करता है।) कुछ कुछ  धुप-छाँहीं, सी  बादलों के घुमड़ने से,  व्यापती तो हैं। बस पानी की  सीलन! हां हां, सीलन! वही नहीं आती। क्या यहां हृदय होता....!  अरे हां, वह होता है। वही तो होता है, इन बंजरो में, निर्मल, स्वच्छ दर्पण सा।   (उम्र और परिस्थितियों से होने वाली इच्छाएं यहां के लोगों में आतीं तो हैं पर उनमें जड़ नहीं होती। आपसी सहयोग, भाईचारे की मिशाल होते हैं, करुणाशील, स्वच्छ हृदय वाले, भेदभाव रहित होते हैं।) उसी में ...

सूख जाएंगे हरे पत्ते रसीले रस भरे।

समय की सरिता में सब, बह जाएंगे। सूख.. जाएंगे,  हरे पत्ते….,  रसीले.. रस भरे, रू..प यह  अप्रतिम.., सुगढ़,  ढ़ल.. जाएगा। दह..कते अंगार से  ये अधर.. तेरे,  एक दिन राख के अंबार में  जाने कहां खो.. जाएंगे। सजल आंखों में  मुखर, ये  कालिमा की रेख् तेरी, काल के पनघट  कहीं खामोश ही  सो जाएगी। लाल चंदन में मिला जो स्वर्ण सा है  वर्ण तेरा, कालिमा में  काल की  मिट  यह नहीं  रह जाएगा। खिलते कमल सम इस समय की  नाभि पर जलता हुआ  यह रूप तेरा, समय की बहती  नदी में एक दिन बह जाएगा। अमृत भिगाते,  मुस्कुराते, प्रेम में आरक्त तेरे ये अधर, समय के इस दीठ पर शामो-सुबह जल जाएंगे। इतना करुण जो, हृदय तेरा, तरल है, इसका सजल रस  रसधार सा बहता  निजल हो जाएँगा। पंखुरी सी  महकती  बिखरती  ये हंसी तेरी,  देखते ही देखते जाने कहाँ खो जाएगी। क्रमशः आगे पढ़ेंगे। जय प्रकाश

खुशियों की होली आई है।

सभी को हैप्पी होली। कोपलें.. धानी हुई हैं, गे..रुआ रंग छोड़ कर, कैरियां आमों में आईं  (बौर गए आम के पेड़..) बंध.. सारे.. तोड़कर।  टो..ह ले..ते,  जो..हते, जैसे,  कोई हो आ रहा, ठीक वैसे डालियों में   रस नया है,  छा रहा। फुनगियां, फागुन में,  फाड़े, डालतीं हैं  डाल को, किंनखियों से  शाख में कलियां खिलीं  गुलाब के। बिछ रही चादर रंगीली धरा पर हर ओर सुंदर, फागुनी ही बह रही है.. आज सबके हृदय अंदर। हुलसे हुए हैं उर सभी के कै..सी.. ये रंगत..आई है, लग रहा है आज.. ऐसा  खुशियों की होली आई है। आओ मिलें, गुलदस्ता बनें महक जाए… फिज़ा सारी, रंग. कुछ ऐसा.. चुने हम.. सभी पाएं… प्रेम… पाली। (प्रेम के अवसर)                   जय प्रकाश

सामो-सुबह वह व्यस्त था इतना।

वह समंदर ही था,  जोश भरा था उसमे, गरजता था,  मदहोशी थी उसमें। क्या आगे, क्या पीछे,  कोई नहीं, अपने  आगे पीछे दिखता  था उसको। हाथो में केवल  शक्ति ही नहीं, महंगी धातुएं,  कीमती से कीमती "पत्थर" थे उसके, अपने वजन के  साथ ही साथ  न जाने....  कितने... वजन के सुवर्ण आभूषण  थे उसके। रुपयों की गड्डियों..को.  गिनने... से कहां कभी भी  फुर्सत थी उसको। मीटिंग्स के पहले,  मीटिंग्स के बाद कब  नाश्ते/ खाने की  फुर्सत थी  उसको। सामो-सुबह  वह व्यस्त था  इतना! अपने बेटे का  कपोल भी कभी नहीं छुआ उसने पुष्प पंखुरियां!  खूब खिलीं...,  बिखरीं...बागों में, सूर्यास्त ! कब हुआ,  कहां पता उसको । हां वो एक सफल  किरदार है,  सोचता था! अपने आगे  किसी की  कब कहां सुनता था। सम्मान था,  लोगों में, क्या  दबदबा था! सच बोलूं यार,  कैसा कैसा उसका  रुतबा था। पर सोचता हूं !  उसने जिंदगी  जीने के लिए, जिंदगी के "जीनो" पर  चढ़ने के लिए जिंदगी ही गंवा…. दी। तर...

पग प्रथम क्या कभी कम था, जीत के अंतिम कदम से।

पग प्रथम क्या कभी कम था, जीत के अंतिम कदम से। फिर भी ताली है बजाती दुनियां सारी, पूजती है,  क्यों… इसी  अंतिम कदम को। कार्य आरंभ ज्यादा महत्वपूर्ण है, फल प्राप्ति मात्र एक स्थिति विशेष, जब की संसार जीत को ही ज्यादा महत्व देता है पूजा करता है। संकल्प था..., या  अनमना सा पल कोई, चल... पड़ा था, राह..  जो सदियां दिखाईं। छोड़ता..., कुछ दूर.. होता,  सलिल सी सुंदर झलक से, कर पढ़ाई, कर लिखाई। पास थोड़ा आ रहा था,  अगन की उस लालिमा के। हर कार्य का आरंभ संकल्प या परिस्थिति विशेष का परिणाम होता है, फिर हम प्रचलित सिद्ध रास्तों का अनुशीलन कर तपस्या करते हैं जैसे पढ़ाई आदि श्रम और दुनियां की रंगीनी से अपने को दूर रखते हैं। समय चक्र पूर्ण होने पर परिणाम की लालिमा या कगार पर ला खड़ा कर देता है। थोड़ी तपन, हल्की चुभन, साथ था कुछ छूटता  ठंडे पवन का। बा……….रिशे.. मेरी छुअन से दूर थीं अब.. मन मटैला पर नहीं होता कभी था। कार्य की सिद्धि के लिए परेशानियां आतीं हैं, सुख छोड़ना होता है, आनंद अवसर को त्यागना होगा और प्रसन्न मन से आगे चलना होगा। खींचता मन घुमड़ पीछे देखता था, स्...

उड़ने वाले के लिए चारदीवारी नहीं होती

गुजरे सुनहले पल (थोड़ा धीरे पढ़ेंगे तो गहरे उतरेंगे) खोल..ता हूं,  जब कभी.. भी,  वो... पेज, तसबीर तेरी  टेढी.. लगती,  है..... मुझे,  खता... तसबीर, की... है, या... मुझमें, ये सच…..  बताओ तो मुझे..। अनेकों बार हम सभी, सही चीजों को, लोगों को, परिस्थितियों को अपने मन के पूर्वाग्रह, कुंठा, वैमनस्य या विचलित दृष्टिकोण से उल्टा समझते हैं जो गलत है। हजरत! ... ‘हसरत’... हकीकत  नहीं.... होती। प्याला-ए-नाफ….  की.... कीमत नहीं होती।  मुतमईन, होने को तो, यों, हो ले कोई, पर, उड़ने वाले के लिए,  चारदिवारी .... नहीं होती। जय प्रकाश सामान्य भावार्थ: जिंदगी का यथार्थ, धरातल, सच्चाई जादुई नहीं होती कल्पना लोक वास्तविक नहीं होता, ईश्वर निर्मित हर प्राणी के सभी अंग सुंदर ही हैं, उसका मूल्य आपके कम आंकने से अवमूल्यित नहीं होता है। बाकी संतुष्टि अच्छी चीज है पर अगर आप में सचमुच काबिलियत है तो कोई व्यक्ति या यह दुनियां आपके लिए अवरोध नहीं बन सकती।

नए आ गए हैं आंकुरे, महूए में देखा आज

आज यह पूरी कविता पढ़ें। छनती रही है जिंदगी  रिश्तों के बीच रोज, बाकी बची है जिंदगी  रिश्तों के बीच आज। (स्वार्थ और आगे बढ़ने की चाह में अपनो को छोड़ दुनियां में खुशियां ढूंढते रहे लोग आखिर में अपने ही लोगों, रिश्तो में जीवन बिताने, साथ खोजते घूमते हैं।) जाने कहां गई वो फिजां,  जो बदलती थी रोज। एक कारवां गुजरा था धूल उड़ रही है आज। (रोज नए अफसाने नए उत्सव थे, शानदार जिंदगी थी, अपरार्ध तक, पर अब जीवन के पश्चिमोत्तर भाग में उनकी यादें ही शेष बचीं रह जाती हैं।) खुश होने को तो दीखते हैं  नन्हें नन्हें पेट, (घरों में पलने वाले छोटे जानवर) खूब पा रहे हैं आबो अदब  नवदंपति में आज। (आजकल फैशन है नव-दंपति शौक से पालतू, बिल्ली, खरगोश, पप्पी आदि अद्भुत प्रेम प्रदर्शित करते हुए पालते हैं) कूदते हैं, उछलते,  मन मोहते हैं सच।  पर बच्चों से खाली हो रही  है जिंदगी तो आज।  ( Pets से प्रेम अच्छा है पर आज परिवारों में बच्चों की जगह पालतू पेट्स ले ले रहे हैं। छोटे बच्चे बहुत कम होते जा रहे हैं।) फिर उलझ गयी है जिंदगी सच सुलझने के बाद, नए आ गए हैं आंकुरे,  महू...

बस ओस की घूंघट कम.. थी।

इक से निभाते न बना,  दूजे की बारी आई। क्या कहूं तुमसे सना  सच जिंदगी सारी पाई। बरसे आषाढ़,  जो निकला,  अकेला घर से, उनसे मिलने की, तो, ना फिर  कभी, बारी आई। जिंदगी सभी को पर्याप्त ही देती है, अपेक्षाएं अलग अलग होती हैं। जिंदगी में कब कहां क्या मिल जाय, और ध्यान न देने से क्या छूट जाए कहा नहीं जा सकता। जिंदगी फिसलती ही गई  साथ संगमरमर का जो था, फलसफा लिख न सका  मौन मेरे अंदर.. तक था। संकोची स्वभाव, अनेक बार जिंदगी के अवसर चूक भी जाता है, यद्यपि नियति सभी को अवसर देती ही है। बदलियां उठती ही रहीं  पानी भी बरसा जब तब, फिज़ा धानी.... भी हुई,  महुए भी चूए टप टप...। अवसर अनेकों बार नियति नटी सभी को किसी न किसी बहाने देती है, यह उसकी आदत में है। अमिया तो खट्टी.... ही थी  पर इमली भी कहां कम थी, धूप.. कुछ ज्यादा.... ही.. थी  बस ओस की घूंघट कम.. थी। अवसरों की पहचान के लिए सतर्कता बरतनी पड़ेगी। कुछ अच्छा बुरा नहीं मन की बात है। जिंदगी मे मुलाकात हर तरह के अवसरों से होती है चाहे कड़ी धूप हो या आर्द्र रहस्य मय सुंदरता। जय प्रकाश

संपूर्णता में सब जिएं

हे विकल धीवर,  समेटो..... जाल को.... ऐसे नहीं। हम सरीसृप क्षीण हों पर जान तो हममें भी है। भार से तेरा भला होगा ये सच, हम जानते हैं, प्राण का सममूल्य मानव भी कहां रख पाया है। बड़े लोग छोटों को समुचित मानव का सम्मान भी प्रायः नहीं देते, उनमें जो एक व्यक्ति का मूल जागृत अंश है चेतना उसकी अनदेखी कर देते हैं। मूक है, अज्यानि हैं हम हो तुम्हीं ईश्वर मेरे। तुम कला में श्रेष्ठ हो हम सदा पीछे तेरे। तुम जुड़ो संवेदना से, अभिराम तेरा आत्म हो। नीचे की सीढ़ी पर खड़ा आदमी अपनी स्थिति से हमेशा वाकिफ रहता है, वह पूरी ईमानदारी और गहराई से हमारी संवेदना को महसूस करता है। विकसित लोगों से उसे बहुत सी उम्मीदें रहती हैं ।  छोड़ दो जीवन कलुष तुम  हम मुक्त हो, हम जी सकें। ‘जीवन कलश’ जल से भरो, ‘दीपक जलाओ’ शीर्ष पर, संपूर्णता में सब जिएं  जो हो जहां संसार में। शीर्ष के लोग यदि अच्छे से रहे तो विश्व में सुख शांति दूर नहीं। जीवन को जल-कलश सा स्थिर, शांत, समृद्धिवान, शीतल, धन धान्य युक्त, ज्ञान और प्रकाश से पूर्ण होना चाहिए। सभी मानव मानवता के लिए काम करें तो हर कोई सुखी होगा। जय प्रकाश

अंशुमाली की किरण के साथ तुम,

कोई चितेरा रंग रहा था कांच पर दुनियां तुम्हारी। रंग सतरंगी लिए….  वो सोचता…. है, ‘एक ही व्यक्तित्व में.. जाने.. न कितनी.. राह हैं’, "कौन… सा किरदार…तेरा  वो उठाए…. रंग भरे… आगे बढ़े।" फिर सोचता है :- आज जब तुम शाम को उस.. पार्क में,  खेलते बच्चों के संग संग, बैठ कर चुपचाप,  अपनी बेंच पर,  "कुछ सोचते, बैठे हुए थे, खोए हुए से !" या फिर :- खिल..खिलाते  हंसते… हुए, बाल शिशु को गोद.. में  लेकर वहीं जब तुम थे खड़े, "आज में जीते हुए से !" अथवा :- देखते  उस कली को  जो 'सुर्ख थी,' डालती थी, एक छाया  'लालिमा' सी तन पे तेरे। "और तुम उमंगे हुए से दीखते थे।" या :- लौटते,  संग डूबते..,  उस अंशुमाली  की किरण के  साथ,  तुम चुपचाप..,  खुद.. में आप  ही, खोए  हुए से,  इस धरा पर, "अनमने बिसरे हुए से।" या अंतिम :- टहलते तुम संग...उन किलकते   लघु पंछियों के   " मस्तियों में कुछ देखते से " या :- प्रात में ही आज, संग ....कुछ बूढ़े हुए  उन गंजुओं से बात करते, झगड़ते से। आखिरी :- सींचते, ...

गिराे , तो वहां, झरता हो झरना, जहां।

रुको, सोचो जरा: उन डबडबाई आंखों में  पानी की गहराई ही  कितनी… थी,  पर सच कहूं, तो  यार ! ह…म  बस... डूब... ही गए। जीवन में हम अपनी तरल संवेदना के क्षणों में अचानक सामान्य से किरदारों में उलझ ‘अदृश्य अटूट पाश’ में बंध जाते है। मुझे डूबता देख,  आस पास के किनारे  बेबस से दिखे,  दूर ही रहे। कनखियों से देखते, कुछ सोचते से लगे। स्मृतियों में खोए, आंखों से मुस्कुराए। होता है, सभी को कभी ना कभी, ‘कुछ ऐसे ही मुंह बनाए’। इस संसार में निजत्व के मामले में आप अकेले ही निर्णय लेते हैं। लोग दूर से देखते मात्र हैं, जानते हैं कि उनका असर आप पर नहीं के बराबर होगा, अपनी स्थिति जो उनके साथ भी घटी थी यह सोच कर मुस्कुराते भर रहते हैं। मैं अपने में ही गुम था, पानी खारा था पर कुछ ज्यादा ही नम था। आभा सतरंगी अभी बाकी थी। चेहरे पर एक नई झांकी थी। तैरना अच्छा लगता है, भार थोड़ा कम लगता है। विवेक जागता तो है, पर चुक जाने पर। बाद में तो सभी ज्ञान बताते हैं, पर तब गलतियां कर कर पछताया भी करते है। बीतते गए, दिन  और एक दिन किनारों ने कहा, 'तुम कुछ अलग लगते हो'। निकल सको तो ...

बेटी की देह, बाग की बेल,

बेटी की देह, बाग की बेल,  जतन से पाला,  अरमान सी बढने लगी। एक लटकते धागे पे चढ़ाया, चढ़ने लगी, खुशियां फैल गईं। मां ने हाथों से सहलाया, पिता ने खुश होकर दुलराया। कुछ ही दिनों में बेल में शाखाएं फूटी, सभी आह्लादित हुए, तन प्रफुल्लित, देखते ही देखते कलियां आई, फूल खिले। फिर पूरे घर की आंखे खुशी से सजल हुईं। अबतक सब कुछ अपनो तक सीमित था, पर क्या खुशबू रोके रुक जाती,  फैली और इतना की, भौरों की कतारें लग गईं,  फूलों के असमय नुकसान से  दुखी नौकर ने घातक दवा का छिड़काव किया। भौरे तो चले गए, पर बेल भी अब मुरझाने लगी है। इसमें कहीं कहीं कांटे भी निकलने लगे है, सब दुखी,  समां बदल गया,  सपनों पे पानी फिर गया। यही क्रम चलता रहा,  एक दिन मालिक की सलाह से  माली के हाथ से बेल की जड़ ……..दी गई। हिरसो मत दुखी मत होओ।  बेल को तो कुछ भी नहीं हुआ। उसकी जड़ काटी नहीं गई, सम्हाल कर उखाड़ी भी नहीं गई। अन्यत्र अच्छी जगह लगाने के लिए, रोपने के लिए मुलायम पत्तों में लपेटी गई। बेल तो जिंदा है, पर अपने कांटों पर शर्मिंदा है। मालिक ने ही सोच समझ कर जल्दी से, एक शुभ ...

चेतना का नृत्य सुंदर रूप लेकर

आज का मानव प्रकृति का उर जब  उमंगते देखता हूं, अवसान होगा काल का  यह सोचता हूं। चेतना का नृत्य सुंदर रूप लेकर, छोड़ अपनी रीति कैसे खो गया है। क्या से क्या यह जीव हा अब हो गया है। प्रकृति जीवन देती है पर जीवन काल बाधित है। जन्म ही मृत्यु का आधार है। चेतन तत्व आनंद के लिए शरीर धारण करता है। आज मानव प्रसन्नता आनंद से दूर हो रहा है। गिर रहा अपने बनाए हुनर में यह, लिख रहा अवसान की अपनी कथा। एक अमृत क्षेत्र  इसको था मिला मुक्त था,  पर बंधनों में,  जा बंधा। छोड़कर  अपनी रुपहली  रात को कंटकों का साथ  इसको भा गया। हमारे प्रगति के परिणाम हमारे विनाश की दिशा बन रहे हैं। प्रेम, करुणा, मित्रता, भाईपन खत्म होता जा रहा है। जय प्रकाश

खोजते हैं हाथ मेरे पोर तेरी उंगलियों के,

दास्तान-ए-जिंदगी खोजते हैं हाथ मेरे पोर  तेरी उंगलियों के, आज-जब, अब .... हूं पड़ा,  बिस्तर किसी.., चुपचाप, तन्हा..! है कौन मेरे पास है,  उस.... मैं नहीं पहचानता। एक परछाईं बची है पास रहती है, मेरे अब घूमती है।  पूछती है, क्या तुम्हे कुछ चाहिए ? "उठा दूं" बस यही आवाज आती है। एक समय आता है जब दुनियां सर पर नहीं पैरो के नीचे होती है, दौड़ खत्म, सभी संचय, प्रगति अर्थहीन। "थामले कोई हाथ मेरा, उठ पाऊं यहां से बदल लूं मैं एक करवट" इतनी चाहत रहती है। अपने पराए, पहचाने नहीं जाते, बस जो भी पास है उससे उम्मीद बचती है। अपने बच्चे के बचपन की  कोमल उंगली की पोरों की याद कर उसे खोजता है। अपने बेटे-बेटी की यादों में वह अशक्त पिता डूब जाता है: ठीक वैसे ही,  कभी जब, पकड़ लेता  तूं कहीं पर, राह चलते, घूमते,  बाहर निकलते, हाथ मेरा। ....... हाथ तेरा  खोज लेता,  उंगलियों को, राह चलते, बीच में  चुपचाप मेरी, बात करते,  कूदते, रोते फुदकते। जब यह वृद्ध जवां था उसका छोटा बच्चा चलते चलते, रोते, डरते अपने आप उसकी उंगलियों को पकड़ लेता था उसमे सामने के स्थ...

पावस संग, घिर आये मेघ,

सावनी फुहार पावस संग, घिर आये मेघ, विकल बदरिया  इत उत डोळे मन भरमत चहुंओर। सावनी फुहार सभी को तन मन में तरंगित कर उतावला बना लेती है सघन घना, यह तिमिर सलोना बुंद बुंद बरसावें नेह। गरजत बरजत  चलत बदरवा, जिय डरपत सच मोर। काली काली बदली जब आकाश को अपने भुजवल्लरी में भर लेती है, उस समय उसकी गरज और फुलझड़ी सी बारिश सबको किसी दूसरे दुनियां में पहुंचा देती हैं। परत फुहार सखी  जब तन पर लागय छुअत सनेह। भीजन लाग अंग जब भीतर भरि आवै नयन सखि मोर। सरकति बूंद कपोल छुअति जब  मगन होते मन मोर। जब फुहास सी ऊपर पड़ती हैं तो लगता है कोई स्नेह अंगुलि स्पर्श कर रहा है। मन तरल हो द्रविभूत हो उठता है। तनों पर ढलकती बूंदे अलग ही अनुभूति देती हैं। ऐसी बीन बजावइ बरखा नागिन-मन नाचइ मोर। चित मोरा अस परवश होइगा सुधि बुधि बिसरी मोहिं। बारिशे लोगो को आत्मविस्मृत कर आत्मभूत कर लेती हैं। श्याम सुंदर की ऐसी मूरति कहि न सकहुं सखि तोहि। श्री राधा की चमक प्राण सी  जीवन दयि गई मोहि। काले मेघ, "श्याम सुंदर" से लगते हैं और उसमे चमकती बिजुरी "श्रीराधा जी" सी लगती हैं। ऐसा लगता है कि श्री राधाकृष्ण जग को...

खपरैलों से बने… कुछ घर हैं यहां…

यहां मेरी यादों के घरौंदे भी है कुछ सूखी हुई…. लकड़ियां हैं यहां.., थोड़े बिखरे… हुए  तिनके भी हैं….। खपरैलों से बने… कुछ घर हैं यहां… मेरी यादों… के  घरौंदे…. भी हैं। जिंदगी छोटी छोटी जरूरतों और साधनों में भी पनपती है, पहले जीना सरल और आसान था, कच्चे घरों में भी लोग सुख से रहते थे। गिरते हुए कुछ  घर हैं यहां, पर झुमकते हुए  अरमान लिए। कुछ सूखी  टहनियां हैं यहां चटकती हुई  कलियों को लिए। कमी और कम सुविधा जिंदगी की जिंदादिली को प्रभावित नहीं करती, अरमान सबके होते है, सौंदर्य साधन और संपन्नता का गुलाम नहीं। पुरानी लखौरी, ईंटों से बने,  चंहुओर जगतों से घिरे,  झाड़ झंखाड़ों से पटे,  गिरते और पटते हुए, एक दो कुएं हैं यहां। यादें मेरे बचपन की लिए। पहले पानी के लिए गांव में एक दो कुएं होते थे, चारो ओर सुंदर गोलाई में ईंटों का चबूतरा जिसे जगत कहते थे, सुरक्षार्थ बनाते थे। आज बेअदबी का शिकार हैं, पटते जा रहे हैं। उनकी सुखद स्मृतियां आज भी हैं। किसी पापुलर बंद हो चुकी  फैक्ट्री के नाम सा ही, आज भी अपने  निर्माणकर्ता का  नाम, तिथि,  ...

एक.. आम की अमिया खातिर

कल का अवशेष भाग : पिछली कविता के साथ पढ़ेंगे तो आनंद दुगुना होगा। एक आम की अमिया खातिर, लिए नून पाती में ढांकी। नाच दुपहरी करती थी जब, हम सब घूमत बगिया भीतर। आह! स्वाद कैसा था उसका आज नहीं है मसका वैसा। खट्टी खट्टी आमों की एक फांक को नमक लगा कर खाते थे, नमक पत्तों में ले जाते थे। पूरी दुपहरी बाग में ही घूमते बीतती थी। आज उस टिकोरे का खट्टा स्वाद मक्खन से भी अच्छा होता था कह सकते हैं। बचपन नित नई उमंगों और तरंगों का समय था। खट्टी खदिर अनामय चोपिल, कितनी भाती थी तब कोंपिल। देख टिकोरा कलमी का तब, सांप लोटता था दिल ऊपर। बैर बिचारी कितनी पिटती पात विहीन बाग में बचती। कोई कोई कच्चा आम एक किनारे पर काला काला होता था जिसे हम बच्चे कोंपील कहते, यह अन्य से पहले थोड़ा मीठा होता था। इसको लेने की होड़ लगती थी। देशी आम खट्टे थे लेकिन कलमी आम कच्चे होने पर भी कुछ मीठा होते थे, उसे पाकर हृदय खुश हो जाता था। बेर के पेड़ बागों में डंडों से पिटते थे। बेर को छोटी होने के नाते ढेले से निशाना बनाना कठिन था। उसके सारे पत्ते डंडों की मार से क्षत विक्षत हो जाते थे। ढेला उस पर काम न करता  डंडा ही उस पर था च...

बगिया के अमवा सी चूई, लड़की जैसी छूई मूई,

  पहला धोवन गाढ़ा होगा पीर रहेगी गाढ़ी, जीवन की कुत्सा झलकेगी सावन की हरियाली। अनुभूति वास्तविक होती है, और पहला पहला अनुभव किसी भी संबंधित हो अनूठा होता है, चाहे दुख पीड़ा का हो या आनंद सावन का। पोर पोर की कोर कोर से रस छलकेगा तीखा, असल तमस अरु भूख प्यास  की कविता होगी मीठा। वास्तविक आनंद उसी कविता में आ सकेगा जिसका साहचर्य कवि ने स्वयं जिया हो। उसी में पोर पोर से रस आनंद मिलेगा और जीवंतता की अनुभूति होगी जीवन के बंजर में खोई बंझूलि की बगिया में सोई, जेठ दुपहरी तपी हुई सी माघ पूष से सनी हुई सी, बगिया के अमवा सी चूई लड़की जैसी छूई मूई, थेथरा के थोभड़ा सी खरभर घूमै जैइसे लइका दिनभर। जरूरी नहीं विषय कोमल हों,पर वे वास्तविकता के पास होंगे। संभव है कहीं यथार्थ जैसे खुरदरे और नखरे वाले या छोटी बच्ची सी अनछुए हों या त्याज्य विषय ही हों। सत्य परोसना ही कवि का काम है। वैसई ह्वै निर्दुंद लिखूंगा कच्ची पक्की सब भर दूंगा। डरो मती तुम नहीं अकेले घूमते थे जो तन मन खोले। बाग बगीचे गली मुहल्ले निर्भय होकर धूम धड़ल्ले। पढ़ने वाला और लिखने वाला जब एकभाव में एक लय ताल में आ जाता है तो कविता आन...

नेह राधा की नही अब, कृष्ण से न उलाहना।

मैं सिमट कर मिट चुका हूँ, मैं मुरलि हो,"सांवरे" की, मंत्र बन विस्तार पाऊं। पा अधर स्पर्श अमृत, विषय सारे भूल जाऊं। श्री कृष्णमय होने, नजदीकी पाने की प्रबल इच्छा की अनुभूति प्राप्त हो। हा! अधर की यह रसिकता प्राणों में  कैसा स्फुरण, मैं सिमट कर मिट चुका हूँ, स्वांस भर... बस... स्मरण। कृष्ण के सामिप्य से मिलने वाली अनुभूति में अपना स्व समाप्त हो जाता है, आनंद मात्र ही रह जाता है। स्वांस भर सुर ताल है अभिलषित नेत्र मराल है। भूतिलय लय है नेह सारा उस सांवरे का कमाल है। कृष्ण भक्ति अद्भुत है, लय कारी है। आनंद सौंदर्य से भरपूर है। नेह राधा की नही अब, कृष्ण से न उलाहना। रस युगल उर में बहे, प्रेम सी न प्रताड़ना। जब श्रीराधाकृष्ण की भक्ति का आनंद प्रसाद मिलता है तो प्रेम व्याप्त हो जाता है, सारे गिले शिकवे समाप्त हो जाते हैं। एकात्म हो आता है । सच कहूँ तो चल चपल चंचल चिकुर की स्वामिनी, बांके बिहारी के विकल प्रति प्रेम की अनुगामिनी। रूप वह उल्लास का प्रेम पथ मधुमास का, नयन बांवरें देखता  मैं कहां, मुझे ना.. पता।  श्री राधा जी का अनुपम सौंदर्य है, प्रेम की पराकाष्ठा हैं श्री राधा। मन त...

क्यों उडी चिड़िया पके उस खेत से।

क्यों रहे उल्लास की  यह फ़ाग आधी, क्यों तड़पता उम्र भर  वह ही रहे, क्यों उठे एक हूक  आती कूक से, क्यों उडे चिड़िया  पके उस खेत से। संसार को उसकी लय गति से समय के साथ जीना ही जीवन है। नकार की भावना स्वभाव को बाधित करती है। तुम मेरे अधखिले मानस  पुष्प की मकरंद हो। तुम मेरी आराधना के पुष्प का अभिप्राय भी। तुम मेरे याचित हृदय के  धारणा प्रतिबिम्ब हो, तुम मेरी पहचान से बढ़कर  मेरा हर स्वप्न भी। मां जगदंबिका, भवानी पार्वती की प्रभु श्री शिव के लिए अन्तर्भाव का वर्णन। तुम मेरा वह मौन हो। चुपचाप, जिसकी याद में, मन तृप्त होता,  आंख झरती। निर्झरे आंसू  लटकते,  स्मृतियां सुलगतीं।  रहतीं मन में। पर्वतराज की पुत्री मां पार्वती का सदाशिव के प्रति प्रेम शाश्वत, निर्मल, एकरस है, शिव के लिए घोर तप उन्होंने किया और उदाहरण प्रस्तुत किया। झूलती झूले मधुर, विश्वास भर कर गोद में, हर नवल पल डूबती हूं, प्राणभर तेरे सरोवर,  प्राण हे, तेरे सरोवर। मां द्वारा शिव प्राप्ति के लिए की गई तपस्या, मधुर भाव मिश्रित, कठिन और प्राणपण से युक्त है। समय के संग मौन मेरा...

कहने को तो ये जिंदगी थी,

जैसा मैंने पाया इसको, कहने को तो ये जिंदगी थी, सच कहूं तो, एक किताब सी ही थी। खुद ब खुद खुलती गई, अंधेरे के बाद  उजाले के साथ, दिनों दिन।  खुद के भीतर, और दुनियां में बाहर। पन्ने बेशक  कागज के तो न थे,  दिनों... के थे, फर्क... तो था।  क्योंकि, पढ़ने वाला खुद, अपनी कथा,  जीते जी ही, पढ़ रहा था। किताब ने उसको  समेटा ही नहीं  लपेटा भी था  खूब भीतर तक। शुरू के पेज,  थोड़ा चिकने थे,  मुलायम भी थे। हां सच कहें तो  आपस में चिपकते हुए भी चिपकते न थे। पर वो पन्ने, धीरे धीरे  आगे, गाढ़े रंगों में, रंगते से गए। किशोर से आगे, हम अपने वजूद में बढ़ते ही गए। हवाओं ने रुख बदला, तेज हुईं,  उड़ा उड़ा के  बहुत तेजी से पलट डाला, कब कितने पन्ने पलटे कुछ पता ही न चला। कुछ दिन बाद ही,  जो पन्ने सिल्क से  उड़ते भागे थे पीछे,  उनके भीतर, एक कुलबुलाहट सी हुई। जब पलटा पन्ने तो, उसके भीतर  एक बिलकुल नई, छोटी, फ्रेश बुकलेट से मुलाकात हुई। सुंदर थी, प्रिय भी लगी। पर जो किताब  आगे पढ़नी थी, वो फिर यहीं से  अनजाने ...

बंद आंखों, धूप में, मैं देखता, बरसात झरती,

मन में  कोई जब  गीत आता, कौन है, जो गुनगुनाता । तरल बन,  तन भींग जाता। नयन नीर में तैरते हैं, सरसता उर बीच कोई, अपनी तरफ है खींचती  घिरती घटा सावन की कोई। घुमड़ते बादल हैं मुझमें शब्द झुक कर नृत्य करते, मन की वीणा थिरकती है, राग अधरों पर मुखरते। बंद आंखों, धूप में, मैं  देखता, बरसात झरती, भागते वह भीगता था भीगते वह… भाग..ती। क्षितिज पर दिखता वहीं था वैभव सहज, मन तृप्ति का, सदानीरा रेत के संग रेंगती मन खोलती… थी सृष्टि का। विह्वल लली सी आत्मविस्तृत  बह रही चुपचाप वह, मन के तट को छू रही थी हर रही परिताप वह। तुष्टि के आंगन में उसके  फूल खिलते थे सदा। महक जाता पवन उपवन सृष्टि के उस अंक का। अतल नेमत से भरा वह कूप था इस सृष्टि का, रिक्त जो होता नहीं था वर्ष भर रहता भरा। थी मनोरथ पूर्णा वह, रूप लेकर बह रही, दे लहू का दान अपने पेट सबका भर रही। जय प्रकाश नदियां एक बालिका सी चुचाप बहती अपने विशाल अविरल, वर्ष भर रहने वाले पवित्र जल में स्नान से हमारे पापों को धुलती ही है, मानसिक शारीरिक कष्ट हरती हैं, हमें अन्न, जल, शुद्ध वातावरण, बाढ़ जल निकासी का माध्यम, और सुख...

मत सिल मेरी तकलीफें, पैबंद पुराना है।

मत सिल मेरी तकलीफें  यह....  पैबंद पुराना है। सिलवन की ये तुरपाई अब स्तर नही सह सकता। (कुछ लोगो की स्थिति इतनी कमजोर और समस्याग्रस्त होती है की उनको एक तरफ से ठीक करो तो दूसरी तैयार हो जाती है, उनको कुछ दो तो रखने की जगह और प्रयोग किए जाने का सही तरीका नहीं आता, उनकी नियति ही दुर्दशा है) छिल जाती हों जब रूहें बरजोर निगाहों से, बाज आओ मत देखो इस नंगी कहानी को। (लोग अपनी लाज को अपनी इज्जत के प्रति संवेदनशील होते हैं, हमे किसी की दयनीय स्थिति का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए।) दुख दुख से सिला जाता तो बात कोई होती, मत सिल मेरे जख्मों को उन रेशमी धागों से। (सामाजिक असमानता बढ़ रही है, कभी किसी गरीब, दुखी के यहां दिखाने को, फोटो खिंचाने को, वोट की खातिर बड़े बड़े राष्ट्रीय नेता पहुंच जाते है वह जले पर नमक ही है, दुखी का दुख ऐसे नहीं कम होगा, जख्म पर कॉटन रखी जाती है न की दिखावट के लिए रेशमी कपड़ा) हद होती तो ये नदियां तालाब नहीं होतीं। मछुआरों की बस्ती से किलकारी कोई उठती। (अगर नेता, अधिकारी, जिम्मेदार लोग अपनी हदों में रहते, भ्रष्ट, बेईमान न होते तो गरीबों, और मध्यम वर्ग के भी घरों मे...

प्रेम, मौन की भाषा मैंने उस दिन देखी जीवन में

शिशु सौंदर्य ये मोहनी मुस्कान,  क्यों है संग इसके, (जबकि)                          रंग दुनियां के नहीं  यह जानता, (शिशु हमारी दुनियां से अनजान, नहीं जानता मुस्कान क्या है, लोगो को कैसी सुंदर लगती होगी। उसकी नेचुरल हंसी फूल के खिलती कलियों सी मुग्ध कर लेती है) उम्र से तो यह  अभी नादान है,  कौन है वह  यह भी नहीं,  वह जानता। (वह इतना छोटा है की अबोध है, अपना भी ज्ञान नहीं पर आकर्षक है) चित हरती है, क्यूं  उसकी स्निग्धता,  दृष्टि, बंधन बन  मुझे क्यूं बांधती, (उसकी निर्मलता, निरलस सरस मुस्कान चित्त हरती हमे मोह पाश में बांध लेती है) अजनबी पन, बीच में, आता नहीं क्यों,  वही क्यों, मां भी तो उसकी मुझको नहीं पहचानती। (यद्यपि मैं उसके लिए अनजान हूं पर उसका देखना मुझे अपनत्व से भरा लगता है,जबकि उसकी मां भी मुझेसे परिचित नहीं) झलक उसकी देखकर निर्बुद्धि सा मैं हो गया,  क्या है, उसके पास  ऐसा चित मेरा क्यूं  बंध गया। (बाल शिशु को देखते ही लोग निर्वाक, तन्मय, स्मृति शून्य ...

कागजी-फूलों से अब तो बागे-गुलाब झुक गए।

शब्द सुंदर हो गए  सोचता मैं हूं खड़ा  चुपचाप!  मौलिकता, इस विश्व की  कैसे कहां गायब हुई। (इस दुनियां के शुरू में चीजे अपनी वास्तविक सच्चाई, अच्छाई के साथ ही थीं फिर कैसे सब इतना गड़बड़ हो गया) पाता हूं निःसंदेह, यह  ज्ञान, विज्ञान ही नहीं  धंधों की भेंट चढ़ गई। (यह सब हम मनुष्यों की करतूत से ही हुआ है) मूल-ए-मर्म, मर जाता है अपने ही प्रतिरूपों में, ओज-ए-जिंदगी खो जाती है ऐशो-आराम के घरोंदों में। (वास्तविकता मात्र ही सत्य होती है, स्वयं में अनूठी! उस जैसा दूसरा असत्य ही होगा। जीवन का आनंद और मजा वास्तविकता में ही है, बनावटी ऐशो आराम में संभव नहीं है) शब्द सुंदर हो गए  जिसके लिए बोले गए, कागजी-फूलों से अब तो बागे-गुलाब झुक गए। (सत्य नितांत अनुभूति की वस्तु है, इसे भाषाबद्ध करने से वास्तविकता नहीं रह जाती, हमने सच को झूठ के आगे बौना कर दिया है, सत्य शर्मिंदा है आज) रसना रसों के स्वाद की पहचान करती थी, वो बिक गई है आजकल   मैगी मसालों पे। (हम और समाज जो प्रकृति का अनुपम रचना हैं, अपने को छोटी छोटी स्वार्थों पर अवमूल्यित कर लिया है, बेंच दिया। जैसे...