पेट भर जाने की सीमा जानती है, नन्हीं चिड़िया
आज आप यह पूरी कविता पढ़ें,आप को अच्छा लगे मेरी पूरी कोशिश है। भावार्थ अंत में अंकित है। मैं! मैं चाहता हूं ‘कल’ बुनुं। सुंदर, सुगढ़, अनुपम बुनूँ। सत्य के रेशों को चुनचुन, प्यार.. की.. चादर.. बुनूं। रंग कैसा, मैं चुनूं, यह सोचता हूं, डूबता हूं…, रंग सारी प्रकृति,के मैं। रंग धानी खींचता है, पास मुझको, पुष्प बन मैं ही खिला हूं गोद उसके। रंग.. धानी.. संग.. केशर का चुनूं…। कल डूब जाए खिलखिलाता समय सरिता, आज को ऐसा बुनूं। बच सके जो पीढियां आने को हैं, अभिशाप के हर दंश से आगे बढूं। बस यों समझ ज्यों पत्तियां हैं, झिलमिलाती, प्रात में स्वर्निम किरन संग झुरझुराती। मचलती उन्मुक्त होकर, पवन के संग। झरकर…. …झराझर, सहज निर्झर, …द्वार तेरे नीम ऊपर। सत्य.. का ही गीत तुझको वो सुनातीं। प्रेम का ही गीत हैं वो गुनगुनातीं। सोचता हूं मैं बुनूं, कुछ आज ऐसा, ओढ़ जिसक...