खपरैलों से बने… कुछ घर हैं यहां…
यहां मेरी यादों के घरौंदे भी है
कुछ सूखी हुई….
लकड़ियां हैं यहां..,
थोड़े बिखरे… हुए
तिनके भी हैं….।
खपरैलों से बने…
कुछ घर हैं यहां…
मेरी यादों… के
घरौंदे…. भी हैं।
जिंदगी छोटी छोटी जरूरतों और साधनों में भी पनपती है, पहले जीना सरल और आसान था, कच्चे घरों में भी लोग सुख से रहते थे।
गिरते हुए कुछ
घर हैं यहां, पर
झुमकते हुए
अरमान लिए।
कुछ सूखी
टहनियां हैं यहां
चटकती हुई
कलियों को लिए।
कमी और कम सुविधा जिंदगी की जिंदादिली को प्रभावित नहीं करती, अरमान सबके होते है, सौंदर्य साधन और संपन्नता का गुलाम नहीं।
पुरानी लखौरी, ईंटों से बने,
चंहुओर जगतों से घिरे,
झाड़ झंखाड़ों से पटे,
गिरते और पटते हुए,
एक दो कुएं हैं यहां।
यादें मेरे बचपन की लिए।
पहले पानी के लिए गांव में एक दो कुएं होते थे, चारो ओर सुंदर गोलाई में ईंटों का चबूतरा जिसे जगत कहते थे, सुरक्षार्थ बनाते थे। आज बेअदबी का शिकार हैं, पटते जा रहे हैं। उनकी सुखद स्मृतियां आज भी हैं।
किसी पापुलर बंद हो चुकी
फैक्ट्री के नाम सा ही,
आज भी अपने
निर्माणकर्ता का
नाम, तिथि,
वर्ष, संवत
उसी
शान से,
शील, संकोच में लजाते हुए।
क्योंकि इसमें आज भी पानी है,
जान है, जिंदगी की निशानी है।
टूट टूट कर बिखरते हुए।
ये कुएं अपने अतीत की
किताब खोले खड़े हैं।
सामने हम सबके।
इन्होंने पाला था
अपने रस से
हमारे पुरखों
को सालों
पहले।
कह तो दूं ही, जो देखा मैने,
शर्म से सिर झुकाए।
एक हैंड पाइप,
उम्र में तो
बच्चा था
उस
कुएं से।
सूखा, जल विहीन
चुपचाप, असमय बालबृद्ध।
अपने उस पितामह कूप के सामने बिल्कुल चुप।
आजके बालकों सा
शील,संकोच से दूर,
भीतर के अंधेरे में घुप।
जय प्रकाश
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