बस ओस की घूंघट कम.. थी।

इक से निभाते न बना, 

दूजे की बारी आई।

क्या कहूं तुमसे सना 

सच जिंदगी सारी पाई।

बरसे आषाढ़,  जो निकला, 

अकेला घर से,

उनसे मिलने की, तो, ना फिर 

कभी, बारी आई।

जिंदगी सभी को पर्याप्त ही देती है, अपेक्षाएं अलग अलग होती हैं। जिंदगी में कब कहां क्या मिल जाय, और ध्यान न देने से क्या छूट जाए कहा नहीं जा सकता।

जिंदगी फिसलती ही गई 

साथ संगमरमर का जो था,

फलसफा लिख न सका 

मौन मेरे अंदर.. तक था।

संकोची स्वभाव, अनेक बार जिंदगी के अवसर चूक भी जाता है, यद्यपि नियति सभी को अवसर देती ही है।

बदलियां उठती ही रहीं 

पानी भी बरसा जब तब,

फिज़ा धानी.... भी हुई, 

महुए भी चूए टप टप...।

अवसर अनेकों बार नियति नटी सभी को किसी न किसी बहाने देती है, यह उसकी आदत में है।

अमिया तो खट्टी.... ही थी 

पर इमली भी कहां कम थी,

धूप.. कुछ ज्यादा.... ही.. थी 

बस ओस की घूंघट कम.. थी।

अवसरों की पहचान के लिए सतर्कता बरतनी पड़ेगी। कुछ अच्छा बुरा नहीं मन की बात है। जिंदगी मे मुलाकात हर तरह के अवसरों से होती है चाहे कड़ी धूप हो या आर्द्र रहस्य मय सुंदरता।

जय प्रकाश






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