पग प्रथम क्या कभी कम था, जीत के अंतिम कदम से।

पग प्रथम क्या

कभी कम था,

जीत के अंतिम कदम से।

फिर भी ताली

है बजाती

दुनियां सारी,

पूजती है, 

क्यों… इसी 

अंतिम कदम को।

कार्य आरंभ ज्यादा महत्वपूर्ण है, फल प्राप्ति मात्र एक स्थिति विशेष, जब की संसार जीत को ही ज्यादा महत्व देता है पूजा करता है।

संकल्प था..., या 

अनमना सा पल कोई,

चल... पड़ा था, राह.. 

जो सदियां दिखाईं।

छोड़ता..., कुछ दूर.. होता, 

सलिल सी सुंदर झलक से,

कर पढ़ाई, कर लिखाई।

पास थोड़ा आ रहा था, 

अगन की उस लालिमा के।

हर कार्य का आरंभ संकल्प या परिस्थिति विशेष का परिणाम होता है, फिर हम प्रचलित सिद्ध रास्तों का अनुशीलन कर तपस्या करते हैं जैसे पढ़ाई आदि श्रम और दुनियां की रंगीनी से अपने को दूर रखते हैं। समय चक्र पूर्ण होने पर परिणाम की लालिमा या कगार पर ला खड़ा कर देता है।

थोड़ी तपन, हल्की चुभन,

साथ था कुछ छूटता 

ठंडे पवन का।

बा……….रिशे..

मेरी छुअन से दूर थीं अब..

मन मटैला पर नहीं होता कभी था।

कार्य की सिद्धि के लिए परेशानियां आतीं हैं, सुख छोड़ना होता है, आनंद अवसर को त्यागना होगा और प्रसन्न मन से आगे चलना होगा।

खींचता मन

घुमड़ पीछे देखता था,

स्वप्न की दुनियां सजल 

बस कनखियों से। 

तब नहीं था 

साथ कोई,

पास भी तब था न कोई।

तपस्या अकेले ही एकांत के साथ ही होती है। मन पीछे आकर्षक दुनियां की ओर झांकता ही है पर संकल्पवान आगे जाते हैं।

हां वो दरिया बह रहा था,

चुप.. मगर 

कुछ कह रहा था।

सारे सपने घूमते थे, 

आगे आगे

साथ उनके भागते हम 

रह किनारे।

राह की दुश्वारियां कब, 

छांह की छाया में उलझीं, 

छोड़ मुझको।

झेल सारी मुश्किलें पर, 

राह हम चढ़ते गए।

पार पथ भी हो गया 

एक दिन, अकेले! 

हां अकेले।

सच्चे मन और प्रसन्न तन से संकल्पित कार्य को परेशानियों को सहते हुए, अन्य इच्छाओं को छोड़ कर पूरा करना होता है। कार्यसिद्धि का आनंद साधक को रस सिक्त कर देता है।

नाव तिरती जा रही थी, 

अरुणिमा के स्वर्ण पथ पर।

एक दिन बिलकुल अचानक 

दिख गई! हां दिख गई

वह मनोरम झील सुंदर।

शांत शीतल अति मनोहर।

सोचता हूं, 

जो रही झिलमिल चमक, 

उस झील ऊपर,

क्या वही मंजिल थी मेरी, 

मैं नहीं पहचान पाया,

कोई कहां पहचान पाया।

श्रेष्ठ कार्य की सिद्धि क्रमिक, स्टेपवार होती है, आनंद रस सच्ची तपस्या के साथ ही अनुभूत होता रहता है। विश्वास की किरणे परिश्रम को आधार देकर उत्पलावित बल लगाती रहती हैं। कभी कभी कार्य करने में ही इतना आनंद आने लगता है की परिणाम गौण, निम्न लगता है, यही विशिष्ट मानसिक स्थिति है जो पूर्णता होती है। यद्यपि साधक को इसका पता ही नहीं रहता।

जय प्रकाश



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