कागजी-फूलों से अब तो बागे-गुलाब झुक गए।

शब्द सुंदर हो गए 

सोचता मैं हूं खड़ा 

चुपचाप! 

मौलिकता,

इस विश्व की 

कैसे कहां गायब हुई।

(इस दुनियां के शुरू में चीजे अपनी वास्तविक सच्चाई, अच्छाई के साथ ही थीं फिर कैसे सब इतना गड़बड़ हो गया)

पाता हूं निःसंदेह, यह 

ज्ञान, विज्ञान ही नहीं 

धंधों की भेंट चढ़ गई।

(यह सब हम मनुष्यों की करतूत से ही हुआ है)

मूल-ए-मर्म, मर जाता है

अपने ही प्रतिरूपों में,

ओज-ए-जिंदगी खो जाती है

ऐशो-आराम के घरोंदों में।

(वास्तविकता मात्र ही सत्य होती है, स्वयं में अनूठी! उस जैसा दूसरा असत्य ही होगा। जीवन का आनंद और मजा वास्तविकता में ही है, बनावटी ऐशो आराम में संभव नहीं है)

शब्द सुंदर हो गए 

जिसके लिए बोले गए,

कागजी-फूलों से अब तो

बागे-गुलाब झुक गए।

(सत्य नितांत अनुभूति की वस्तु है, इसे भाषाबद्ध करने से वास्तविकता नहीं रह जाती, हमने सच को झूठ के आगे बौना कर दिया है, सत्य शर्मिंदा है आज)

रसना रसों के स्वाद की

पहचान करती थी,

वो बिक गई है आजकल  

मैगी मसालों पे।

(हम और समाज जो प्रकृति का अनुपम रचना हैं, अपने को छोटी छोटी स्वार्थों पर अवमूल्यित कर लिया है, बेंच दिया। जैसे जीभ अब असली रस आस्वादन नहीं नकली स्वाद में ही लगी रहती है)

जिसको था अख्तियार 

तमाम बागो-बहार का,

वो फिर रहा है आज 

बस फाइव स्टार में।

हम मनुष्य सारे अनंत ब्रह्मांड के लिए बने थे अब मात्र सीमित नकली साधनों पर आश्रित हुए जा रहे हैं, अपने को संकुचित कर रहे हैं।


मौजूए जिंदगी जो बहती थी

एक दरिया सी अलदमस्त,

घुप हो गई है आज 

तंजीमों खयाल में।

जो जीवन जिंदगी के प्राकृतिक मजे लेता था और सहज सरल जीता था, आज तरकीबों, तकनीकों और नकलीपन में खत्म हो रहा है।

ये दियारे-जहांन न रहे, 

उनके पीछे पीछे चले,

वो जब जितना चाहें 

फूल उतना ही खिलें।

आज का आदमी चाहता है की ये संसार उसके हिसाब से रहे, वो प्रकृति पर भी राज चाहता है, जैसे जितना चाहे फूल कलियां उतनी ही खिले।

जिंदगी के सामने,

बंदिशें जाया थीं, कभी

अब बंदिशें तय करती है 

की जिंदगी किधर जाए।

आज कल शुरू से ही बचपन को अनेक तरह से बांधा जाता है, उसका नेचुरल फ्लो अवरुद्ध किया जा रहा। लोगों में संपूर्णता नहीं आ पा रही है।

दरिया भी रहूं, 

और बहूं, 

जब जितना 

वो चाहे,

नहीं नहीं! 

नाम तो 

बदलो मेरा

इसे मैं 

अब ढो 

नहीं सकती।

प्रकृति भी विद्रोह की मुद्रा में हमारी करतूतों के कारण आ रही है, आखिर आदमी चाहता क्या है, सब उसके अनुसार नहीं होगा।

मैं रंग बदलूं, 

फिज़ा बदलूं,

तुम्हारे कहने से 

क्या क्या बदलूं।

छोड़ दूंगी गर 

ये सब्ज रंग हरा,

सोच तो क्या 

हश्र होगा तेरा।

अगर नियति नटी, प्रकृति रुष्ट हो गई तो विनाश देखना पड़ेगा, हम रंग बिरंगे पेड़ पौधे तकनीकों से बना रहे हैं।  अगर प्रकृति ने नाराज हो अपनी हरियाली समेत ली तो क्या होगा।

वो चाहता है

पहाड़ रास्ता दें,

झुक कर उसे

सलाम करें!

आदमी की ख्वाईशें बहुत बढ़ गई हैं।अनहोनी दूर नहीं, बाढ़,सुखा, अनिष्ट संभव होगा।

नदी साफ रहे,

बहती भी रहे,

उसके कारनामों

कारखानों को

बेशर्त माफ करे!

प्रकृति मां है पर आदमी अगर नहीं सुधरा तो उसे वह कब तक माफ करेगी।

वो ये भी चाहता है

जंगल और 

उसके जानवर

उसका कानून मानें,

हवाएं उस ओर बहें

जिधर वो चाहे,

होगा जरूर ये सब

पर वो नहीं रहेगा तब।

हमारी अंतहीन इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं ही हमे एक दिन ले डूबेगी। सह अस्तित्व में रहना सीखना होगा।







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