बंद आंखों, धूप में, मैं देखता, बरसात झरती,
मन में कोई
जब गीत आता,
कौन है,
जो गुनगुनाता ।
तरल बन,
तन भींग जाता।
नयन नीर में तैरते हैं,
सरसता उर बीच कोई,
अपनी तरफ है खींचती
घिरती घटा सावन की कोई।
घुमड़ते बादल हैं मुझमें
शब्द झुक कर नृत्य करते,
मन की वीणा थिरकती है,
राग अधरों पर मुखरते।
बंद आंखों, धूप में, मैं
देखता, बरसात झरती,
भागते वह भीगता था
भीगते वह… भाग..ती।
क्षितिज पर दिखता वहीं था
वैभव सहज, मन तृप्ति का,
सदानीरा रेत के संग रेंगती
मन खोलती… थी सृष्टि का।
विह्वल लली सी आत्मविस्तृत
बह रही चुपचाप वह,
मन के तट को छू रही थी
हर रही परिताप वह।
तुष्टि के आंगन में उसके
फूल खिलते थे सदा।
महक जाता पवन उपवन
सृष्टि के उस अंक का।
अतल नेमत से भरा वह
कूप था इस सृष्टि का,
रिक्त जो होता नहीं था
वर्ष भर रहता भरा।
थी मनोरथ पूर्णा वह,
रूप लेकर बह रही,
दे लहू का दान अपने
पेट सबका भर रही।
जय प्रकाश
नदियां एक बालिका सी चुचाप बहती अपने विशाल अविरल, वर्ष भर रहने वाले पवित्र जल में स्नान से हमारे पापों को धुलती ही है, मानसिक शारीरिक कष्ट हरती हैं, हमें अन्न, जल, शुद्ध वातावरण, बाढ़ जल निकासी का माध्यम, और सुख समृद्धि देती हैं। सृष्टि का यह वरदान हैं इनको साफ रखना चाहिए।
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