पुष्प बन तूं ही खिला है गोद उसमें।
किसी ने पूछा की आप इस उम्र के पड़ाव पर क्या चाहेंगे? मैंने कहा:
मैं!
मैं चाहता हूं
कल बुनुं। (सुंदर भविष्य)
सुंदर, सुगढ़,
अनुपम बुनूँ।
सत्य के रेशों
को चुनचुन,
प्यार.. की..
चादर.. बुनूं।
मेरी इच्छा है कि मैं सत्य और प्रेम के ताने बाने लेकर लोगो और अपने लिए सुंदर कल्याणकारी भविष्य को समेटती आकर्षक चादर बना पाऊं।
रंग कैसा, मैं चुनूं,
यह सोचता हूं,
डूबता हूं…,
रंग सारी प्रकृति, मैं।
रंग धानी
खींचता है,
पास मुझको,
पुष्प बन
मैं ही खिला हूं
गोद उसमें।
प्रकृति का हरा रंग जीवन का प्रतीक है। क्योंकि सारे पुष्प, फल इसी से पोषण पाते है, और सृष्टि गतिशील रहती है। यह हरा धानी रंग सर्वप्रिय होगा।
रंग.. धानी..
संग.. केशर
का चुनूं…।
कल डूब जाए
किलकिलाता
समय सरिता,
आज को
ऐसा बुनूं।
बच सके
जो पीढियां
आने को हैं,
अभिशाप के
हर दंश से
आगे बढूं।
समृद्धि का रंग धानी जो सुवर्ण मिश्रित हो जिसमे आने वाला कल किलकिलाए, खुश रहे आज कुछ ऐसा किया जाय। आने वाली जेनरेसन जो धर्म जाति, वर्ण, वर्ग में बंटी है वह मुक्त जिए कुछ ऐसा हो।
बस यों समझ
ज्यूं पातियां हैं,
झिलमिलाती,
प्रात में स्वर्निम
किरन के
झुरझुराती।
मचलती
उन्मुक्त होकर,
पवन के संग,
झरकर
झराझर,
द्वार तेरे
नीम ऊपर,
सत्य का ही
गीत तुझको
वो सुनातीं।
प्रकृति अपने हर रूप रंग में भेदभाव मुक्त होती है। सभी को पोषण देती है। प्रसन्न रखती है और सदा सत्य को अपने में संरक्षित करती है।
मैं बुनूं कुछ आज
ऐसा सोचता हूं,
ओढ़ जिसको
कर सकूं
मैं टीस..ते
इस दिल को
हल्का।
पर रोशनी
सा फलक
थोड़ा लूं सुनहरा
शब्द की भाषा चुनू
या बोलती चिड़िया
की बोली?
खो गया हूं!
दुख भरा मन
तोड़ती,
उड़ती ये चिड़िया।
आह ! कैसा
सोचता हूं,
भार मेरा श्राप है।
ढो रहा घर बार,
कारोबार
ये संसार
सिर पर
मैं, उठाए।
मुक्त है, उन्मुक्त है,
पर उत्स से यह सिक्त है।
क्या मूर्ख है, फिर सोचता हूं।
क्रमशः आगे पढ़ें कल।
जय प्रकाश
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