चेतना का नृत्य सुंदर रूप लेकर

आज का मानव

प्रकृति का उर जब 

उमंगते देखता हूं,

अवसान होगा काल का 

यह सोचता हूं।

चेतना का नृत्य

सुंदर रूप लेकर,

छोड़ अपनी रीति

कैसे खो गया है।

क्या से क्या यह जीव

हा अब हो गया है।

प्रकृति जीवन देती है पर जीवन काल बाधित है। जन्म ही मृत्यु का आधार है। चेतन तत्व आनंद के लिए शरीर धारण करता है। आज मानव प्रसन्नता आनंद से दूर हो रहा है।

गिर रहा अपने बनाए

हुनर में यह,

लिख रहा अवसान की

अपनी कथा।

एक अमृत क्षेत्र 

इसको था मिला

मुक्त था, 

पर बंधनों में, 

जा बंधा।

छोड़कर 

अपनी रुपहली 

रात को

कंटकों का साथ 

इसको भा गया।

हमारे प्रगति के परिणाम हमारे विनाश की दिशा बन रहे हैं। प्रेम, करुणा, मित्रता, भाईपन खत्म होता जा रहा है।

जय प्रकाश



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