नेह राधा की नही अब, कृष्ण से न उलाहना।

मैं सिमट कर मिट चुका हूँ,


मैं मुरलि हो,"सांवरे" की,

मंत्र बन विस्तार पाऊं।

पा अधर स्पर्श अमृत,

विषय सारे भूल जाऊं।

श्री कृष्णमय होने, नजदीकी पाने की प्रबल इच्छा की अनुभूति प्राप्त हो।

हा! अधर की यह रसिकता

प्राणों में  कैसा स्फुरण,

मैं सिमट कर मिट चुका हूँ,

स्वांस भर... बस... स्मरण।

कृष्ण के सामिप्य से मिलने वाली अनुभूति में अपना स्व समाप्त हो जाता है, आनंद मात्र ही रह जाता है।

स्वांस भर सुर ताल है

अभिलषित नेत्र मराल है।

भूतिलय लय है नेह सारा

उस सांवरे का कमाल है।

कृष्ण भक्ति अद्भुत है, लय कारी है। आनंद सौंदर्य से भरपूर है।

नेह राधा की नही अब,

कृष्ण से न उलाहना।

रस युगल उर में बहे,

प्रेम सी न प्रताड़ना।

जब श्रीराधाकृष्ण की भक्ति का आनंद प्रसाद मिलता है तो प्रेम व्याप्त हो जाता है, सारे गिले शिकवे समाप्त हो जाते हैं। एकात्म हो आता है

सच कहूँ तो चल चपल

चंचल चिकुर की स्वामिनी,

बांके बिहारी के विकल

प्रति प्रेम की अनुगामिनी।

रूप वह उल्लास का

प्रेम पथ मधुमास का,

नयन बांवरें देखता 

मैं कहां, मुझे ना.. पता। 

श्री राधा जी का अनुपम सौंदर्य है, प्रेम की पराकाष्ठा हैं श्री राधा। मन तन सब प्रेम नद में डूब कर आत्मविस्मृति हो जाती है।

जय प्रकाश








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