प्रेम, मौन की भाषा मैंने उस दिन देखी जीवन में
शिशु सौंदर्य
ये मोहनी मुस्कान,
क्यों है संग इसके, (जबकि)
रंग दुनियां के नहीं
यह जानता,
(शिशु हमारी दुनियां से अनजान, नहीं जानता मुस्कान क्या है, लोगो को कैसी सुंदर लगती होगी। उसकी नेचुरल हंसी फूल के खिलती कलियों सी मुग्ध कर लेती है)
उम्र से तो यह
अभी नादान है,
कौन है वह
यह भी नहीं,
वह जानता।
(वह इतना छोटा है की अबोध है, अपना भी ज्ञान नहीं पर आकर्षक है)
चित हरती है, क्यूं
उसकी स्निग्धता,
दृष्टि, बंधन बन
मुझे क्यूं बांधती,
(उसकी निर्मलता, निरलस सरस मुस्कान चित्त हरती हमे मोह पाश में बांध लेती है)
अजनबी पन, बीच में,
आता नहीं क्यों,
वही क्यों, मां भी तो उसकी
मुझको नहीं पहचानती।
(यद्यपि मैं उसके लिए अनजान हूं पर उसका देखना मुझे अपनत्व से भरा लगता है,जबकि उसकी मां भी मुझेसे परिचित नहीं)
झलक उसकी देखकर
निर्बुद्धि सा मैं हो गया,
क्या है, उसके पास
ऐसा चित मेरा क्यूं
बंध गया।
(बाल शिशु को देखते ही लोग निर्वाक, तन्मय, स्मृति शून्य हो उसी में एक क्षण को बंध जाते हैं)
निर्मल चितवनि थी,
दृष्टि नवल थी,
उत्सुकता थी आंखों में,
निर्भय सभय बीच स्थिति थी,
मौन छिपा था अधरों में।
(मनुष्य के आकर्षण और आनंद का विषय स्वच्छ मन, निर्भाव दृष्टि, परिवर्तनीय शुचिता, समस्थिति, और एकांत हैं जहां वह आत्मविस्मृत होता है)
सजल नयन थे,
मुक्त हृदय था,
आमंत्रण मैत्री सा था,
विश्वास सघन चहुंओर छिपा था
कौतूहल था अंग अंग में।
(सभी को करुणा, निष्कलुष अंतस, मैत्री, विश्वास, और गतिमयता प्रिय होती है)
ज्ञान नहीं था, बुद्धि नहीं थी,
प्रेम मात्र बस झरता था,
नन्हें बालक की पलकों से
दिव्य प्रकाश निकलता था।
(चतुराई, चालाकी और कलिल बुद्धि सब प्रेम से हार जाते हैं जहां प्रेम वहीं दिव्यता होती है )
ज्ञान शून्य कर गया मुझे वह
क्षण भर के आकर्षण से।
प्रेम, मौन की भाषा मैंने
उस दिन देखी जीवन में।
जाने क्या क्या
कह कर मुझसे,
राग शून्य सन्यासी सा,
दृष्टि फेर ली ऐसे उसने,
लिपट गया मां के तन से।
(शिशु और सन्यासी जीवन का मीठा आनंद लेते हैं, राग द्वेष, बंधन,भूत भविष्य से निर्भय ईश्वरीय जगत से जुड़े होते हैं)
जय प्रकाश
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