एक.. आम की अमिया खातिर
कल का अवशेष भाग : पिछली कविता के साथ पढ़ेंगे तो आनंद दुगुना होगा।
एक आम की अमिया खातिर,
लिए नून पाती में ढांकी।
नाच दुपहरी करती थी जब,
हम सब घूमत बगिया भीतर।
आह! स्वाद कैसा था उसका
आज नहीं है मसका वैसा।
खट्टी खट्टी आमों की एक फांक को नमक लगा कर खाते थे, नमक पत्तों में ले जाते थे। पूरी दुपहरी बाग में ही घूमते बीतती थी। आज उस टिकोरे का खट्टा स्वाद मक्खन से भी अच्छा होता था कह सकते हैं। बचपन नित नई उमंगों और तरंगों का समय था।
खट्टी खदिर अनामय चोपिल,
कितनी भाती थी तब कोंपिल।
देख टिकोरा कलमी का तब,
सांप लोटता था दिल ऊपर।
बैर बिचारी कितनी पिटती
पात विहीन बाग में बचती।
कोई कोई कच्चा आम एक किनारे पर काला काला होता था जिसे हम बच्चे कोंपील कहते, यह अन्य से पहले थोड़ा मीठा होता था। इसको लेने की होड़ लगती थी। देशी आम खट्टे थे लेकिन कलमी आम कच्चे होने पर भी कुछ मीठा होते थे, उसे पाकर हृदय खुश हो जाता था। बेर के पेड़ बागों में डंडों से पिटते थे। बेर को छोटी होने के नाते ढेले से निशाना बनाना कठिन था। उसके सारे पत्ते डंडों की मार से क्षत विक्षत हो जाते थे।
ढेला उस पर काम न करता
डंडा ही उस पर था चलता
नहीं बची थी एक भी पाती
थी निहंग बगिया की वासी।
ऊपर से तो झड़ जाती थी
अंतर में कुछ बच जाती थी।
डंडों पैनों की सीमा थी
उर तक नहीं पहुंच पाती थी ।
बाग में बेर का पेड़ निहंगों जैसा बिना पत्ती के, मात्र अपने नुकीले कांटो के साथ बचता था, जैसे उजड़ा हुआ घर हो। ऊपर की बेर तो पिट कर झड जाती पर भीतर जहां डंडों की पहुंच नहीं थी, उसके अंतः भाग में बच जाती थीं। डंडे को टहनियां रोक लेती थीं।
लाल लाल कुछ पीली पीली
कांटो से बच हुईं रसीली।
छोटी छोटी बेर पकी थी
खांसी की ही बहिन सगी थी।
छिलका ही रहता था ऊपर,
फिर भी जी ललचाता उनपर।
इस तरह जो बेर बचती लाल या ललाई लिए पीले रंग की हो जाती जिसके ऊपर गुद्दा सूख कर छिलका मात्र ही बचता था। जो खाने के लिए कम हमारा लालच ही ज्यादा होता था। बेर खाने से शाम को खांसी जरूर आती थी एक तरह वह खांसी की सगी बहिन ही थी।
डंडा जेतनै ओहिपै बरसै
बुढ़िया जैसी उतनै गरजै।
जितना जोर से मारूं डंडा
रोक लेइ झड़ झाखड़ ढंढा।
जैसे गावों में कोई झगड़ालू बुढ़िया बार बार बाहर आकर झगड़ा करती हैं वैसे ही बेर की डाली डंडे की चोट से दबती और स्प्रिंग के जैसे कई बार बाहर भीतर लचकती रहती।
एक नवेली डारि थी ऊपर,
मुस्कियाति रीझति थी हमपर।
हिलिडुलि कुछ कुछ कुलबुलाति थी।
देख अल्हड़पन कसमसाति थी।
कांटे अभी मधुर थे उसके,
धंसते थे पर घाव न करते।
हम भी तब मन सोचा करते,
मन ही मन उम्मीदें भरते।
एक खरोच तनिक लग जाती,
हिय तक पीर पहुंच तो जाती।
जल जाते पर आह न करते,
बाती बन दीया में रहते।
ऐसेइय क्या क्या सोचा करते।
यह कविता का कोमल भाव पक्ष है, जो किशोर वय का अन्तःभाग होता है। वह अपने नुकसान तक भी आनंद की खोज में लगा रहता है। कल्पना लोक में बहता रहता है। शेष, पाठक चतुर सुजान सभी समझदार है।
जय प्रकाश
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